भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
न्यू ग़रीब हिन्दू होटल / धूमिल
Kavita Kosh से
और फिर रात में
जब चीज़ें एक सार्वजनिक लय में
दुहराई जाने लगती हैं
होटल की माँद में
थका-हारा
बर्तन माँजने वाला घीसा-
अपने से दस-बारह साल छोटे
लड़के की-
गुदगर देह से सटा हुआ
जलेबियों को सपना देखता है
प्लेट साफ़ करते हुए
लड़के का सोना
कानूनी है कानूनी है
रोटी दो रोटी दो
सुरुवा दो सुरुवा दो
कीमा दो
बोटी दो
मालिक का सीझा हुआ चेहरा
जैसे बासी रोटी पर किसी
शरारती महराज ने
दो आँखें बना दी हों
थाली आते ही मेरी टाँगों के नीचे
एक कुत्ता आ जाता है
कुरसी से कौर तक फिर वही कुकुरबू
रोटी खरी है बीच में
पर किनारे पर कच्ची है
सब्ज़ी में नमक ज़्यादा है
पता नहीं होटल के मालिक का पसीना है या
'महराज' के आँसू
(इस बार भी देवारी में उसे घर जाने की
छुट्टी नहीं मिली)