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न रुकते चरण / महेन्द्र भटनागर

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अँधेरी निराशा-निशा में
उषा की दमकती न आशा-किरण !

गगन में नहीं अब चमकते सितारे कहीं,
धरा के सभी दूर डूबे किनारे कहीं,
चला जा रहा, पर, सतत बेसहारे कहीं,
विहग उड़ हृदय के सभी आज हारे नहीं,
कठिन कंटकों से भरी राह
दुर्गम, कहीं, पर न रुकते चरण !

उगलती चली पंथ की हर कहानी गरल,
मिटाती चलीं आँधियाँ सब सुरक्षित महल,
सतत, पर प्रगतिवाह-उन्मुक्त-जीवन-सबल,
हुई साधना-प्राण की मम न किंचित विफल,
विरोधी अमंगल समय की
सुलगती प्रखरतम बुझायी जलन !

चमक कर, गरज कर डरातीं घटाएँ अगम,
निरंतर उलझती गयी हर डगर बन विषम,
कि बढ़ता गया घिर धुआँ-सा तिमिर हर क़दम,
व बुझते गये राह-संकेत-दीपक सहम,
प्रलय रात, पर, आज भय से
कहीं डबडबाए न मेरे नयन !