भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पंख / शंख घोष / जयश्री पुरवार
Kavita Kosh से
सब कुछ मिटा देने वाली यह रात तुम्हारे समान है
सभी ज़ख़्मों के ऊपर पड़ती है पर्त ।
कभी कभी
पास या दूर जल उठती है फ़ॉसफोरस ।
किसी बात का कोई अफ़सोस नहीं है ।
प्रवाह चल रहा है सिर्फ़ तुम्हारी ही तरह
अकेले अकेले,
तुम्हारी ही तरह इतना विकार रहित ।
फिर भी जब तुम्हारी बाबत सोचता हूँ,
सभी आघात
पंखों की तरह आकर सीने पर हाथ रख देते हैं
यद्यपि जानता हूँ कि तुमने कभी भी चाहा नहीं मुझको ।
मूल बांग्ला से अनुवाद : जयश्री पुरवार