पंचभूतों ने जो मुझे सिखलाया / के० सच्चिदानंदन
धरती ने मुझे सिखलाया है-
सब कुछ स्वीकारना
सब कुछ के बाद
सबसे परे हो जाना
हर ऋतु में बदलना
यह जानते हुए कि
स्थिरता मृत्यु है
चलते चले जाना है
अन्दर और बाहर।
अग्नि ने मुझे सिखलाया है-
तृष्णा में जलना
नाचते-नाचते हो जाना राख
दुख से होना तपस्वी
काली चट्टानों के दिल और
सागर के गर्भ में
प्रकाश जागते हुए
ध्यानमग्न होना।
जल ने मुझे सिखलाया है-
बिना चेतावनी
आँख और बादल में से
टप-टप टपकना
आत्मा और देह में
गहराई तक रिसना
और इन दोनों को देना सँवार
फूल और आँसू से
स्वयं होना मुक्त
नाव और ठाँव से
और विलय हो जाना
स्मृतियों के किनारे
उस अतल नील में।
पवन ने मुझे सिखलाया है-
बाँस के झुरमुट में निराकार गाना
पत्तियों के माध्यम से भविष्य बतलाना
बीजों को पर-पंख
हवा-सा दुलराना
आंधी-सा रुद्र होना।
पंचभूतों ने मुझे यह सिखलाया-
जोड़ना-जुड़ना
टूटना-बिखरना
रूप बदलते रहना
जब तक न मिले मुक्ति
मुझे सारे रूपों से।
अनुवाद : डा० विनीता / सुभाष नीरव