पंचम सर्ग / रामेश्वर नाथ मिश्र 'अनुरोध'
सुना लक्ष्मण ने जब रव घोर,
हुए तत्क्ष्ण चिन्तन में लीन।
उठा क्योंकर यह भैरव नाद?
हुआ क्यों जग शोभा-श्रीहीन॥
सूर्य की ज्योति हुई क्यों मन्द?
बंद-से हुए सृष्टि व्यापार?
धरा पर नहीं शांति निश्शेष?
हुआ चहता संसृति संहार?
इन्द्र का छूटा कुलिश कठोर,
या कि है चला वरुण का पाश?
या कि शंकर का शूल विशाल,
चला करने ब्रह्माण्ड-विनाश?
या कि होकर अति क्रोधाविष्ट,
काल ने फेंका दण्ड कठोर।
या कि श्रीहरि का चक्र कराल,
भर रहा नभ में दारुण रोर॥
या कि कविक्रतु हुतभुक कर क्रोध,
सप्तजिह्वा खोले विकराल?
हुए उद्यत करने दिवि-दाह,
आह, जिससे चर-अचर बेहाल॥
या कि ताड़का-तनय मारीच,
राक्षसी सेना सहित सतर्क।
चढ़ा रघुनायक पर रण-हेतु,
इसी से मन्द ज्योति क्या अर्क?
राज्य-च्युत हैं सम्प्रति श्री राम,
संग में भाभी कुल की लाज।
और मैं हूँ प्रभुवर से दूर,
हुआ चहता है परम अकाज॥
या कि राघव ने ही सोत्साह
राक्षसों को करने निर्मूल।
चलाया है ब्रह्मास्त्र अजेय,
उड़ रही जिससे भारी धूल॥
जो भी हो उचित नहीं है और
अधिक रुकना या करना देर।
न जाने क्या है देव-विधान?
निमिष में हो सकता अंधेर॥
एक क्षण में समिधादि समेट,
शीघ्रता से फल-मूल बटोर।
और डग भरते लम्बे, मौन,
सोचते चले कुटी की ओर॥
आहा! जैसे हो मत्तगयन्द,
झुण्ड से बिछुड़ जा रहा आज।
या कि मृगया के हेतु सतर्क,
बढ़ रहा हो कोई मृगराज॥
पहुँचकर देखा प्रभु निश्चिन्त,
कुटी सम्मुख बैठे थे शांत।
अधर अम्बुज पर स्मित मन्द,
प्रात इन्दीवर-सा तन कांत॥
धरा था वहीं निषंग नवीन,
जटित कंचन, शर से भरपूर।
विकट विषधर-सा चाप विशाल,
पड़ा था वहीं, नहीं था दूर॥
वहीं थीं आर्य भी अति खिन्न,
शिशिर-हत पंकज-सा मुख दीन।
दीखता ज्यों बादल के बीच,
निबल, निस्तेज मयंक मलीन॥
अचानक पड़ी चरण पर दृष्टि,
चंचु-चोटिल शोणित से लाल।
कहा लक्ष्मण ने तब सविषाद-
" आर्य! आर्या का यह क्या हाल?
पूजता रहा जिसे दिन-रात,
चढ़ाकर अपने भाव प्रसून।
अहा! उस चरण-कमल से आज,
बह रहा है यह क्योंकर खून?
मातृवत माना जिहें सदैव
और पाया वैसा स्नेह।
उन्हीं के चरणों में ये घाव,
ताव से जलती है यह देह॥
दया से द्रवित सदा वर चित्त,
नित्य करुणा से कलित अनूप।
आहा! जिनका अति ह्रदय उदार,
उन्हीं को लगी चोट विद्रूप॥
न गृह में शांति, न वन में चैन;
अहा! यह कैसा कर्म-विधान?
कौन पढ़ सकता विधि का लेख?
अनागत का किसको है ज्ञान?
पिता ने दिया अहो! असि पत्र
नरक जैसा वनवास कठोर।
एक प्रिय पुत्र हेतु अपकर्म!
न्याय-हत्या, अनरीति अछोर! "
कहा प्रभु ने हँसकर-" हे सौम्य!
कहीं से एक आ गया काक।
उसी ने दिया सिया को घाव,
माँसलोलुप ज्यों राक्षस पाक॥"
कहा लक्ष्मण ने-" है आश्चर्य,
कर सका ऐसा कैसे काक?
आह! यह कैसा है प्रारब्ध?
उपस्थित कैसा कर्म-विपाक?
आपके रहते हुए अभीत
काक कर आर्या पर आघात,
बचाकर चला गया निज प्राण,
है नहीं क्या विस्मय की बात?
अगर मैं होता तो हे तात!
छोड़ता नहीं नीच के प्राण।
दुष्ट का लेना शीश उतार,
दुष्टता का उत्कृष्ट निदान॥"
" शांत हो मेरे अनुज अधीर,
मिलेगा अपराधी को दण्ड। "
कहा राघव ने कर मृदु हास,
सुदृढ़ कर में लेकर कोदण्ड॥
" सुनें सुर-असुर खोलकर कान,
उठा कर कहता मैं भुजदण्ड।
राम के शासन में है सत्य,
अदण्डित रह न सकेगा भण्ड॥
किया है किसने यह दुष्कर्म,
आ गया निश्चय उसका काल।
अनुज! वह भ्रांति-बद्ध हो आज,
सर्प को समझ रहा मणिमाल॥
गया है मेरा दारुण बाण
दुष्ट का करने अनुसंधान।
करेंगे उसके निस्संदेह
देह से पागल प्राण प्रयाण॥
किन्तु इतना मेरा विश्वास,
नहीं वह मृत्यु लोक का जीव।
पलक थी उसकी अचल, सुनेत्र
चपल थे यथा नवल राजीव॥
और है एक बात, हे सौम्य!
हवा में था वह मानो तैर।
न तन के उसके था प्रतिबिम्ब,
न धरती पर पड़ते थे पैर॥
देह थी उसकी दिव्य, सुपुष्ट,
शक्तिमय, शोभन और विशाल।
ऐन्द्रजालिक-सा प्रतिपल मौन
चल रहा था वह मायिक चाल॥
कभी जाता था नभ में दूर,
कभी भू पर आता तत्काल।
कभी हो जाता दृग की ओट,
कभी प्रकटित होता ज्यों काल॥
मानता हूँ मैं अपनी भूल,
हुआ मुझसे कर्तव्य प्रमाद।
इसी से हुआ उपस्थित आज,
अनिक्षित, अनसोचा, अवसाद।
किन्तु करता तुमको आश्वस्त,
रहेगा सुयश राम के साथ।
नहीं स्मय-विस्मय हे वीर!
झुकेगा नहीं लाज से माथ॥
प्रतीक्षा करो तनिक हे सौम्य!
सामने होगा दोषी आप।
उसे लायेगा मेरा बाण,
मंत्र ज्यों लाता विषधर साँप॥
काक की बोलो कौन बिसात?
सृष्टि का कर सकता हूँ नाश।
अस्त्र विद्या का बल, विक्रांत,
सिर्फ मेरे या शिव के पास॥"
कहा लक्ष्मण ने हो उद्विग्न-
" अन्यथा नहीं समझिये तात!
सुयश के आप प्रसन्न निकेत,
आपका बल-विक्रम विख्यात॥
आप ही तीस लक्षणों युक्त,
धर्म के हैं साकार स्वरुप।
आप ही वेद-ज्ञान-मर्मज्ञ,
विष्णु के हैं प्रतिमान अनूप॥
आर्या का लाख दारुण क्लेश,
उठी अंतर में दाहक हूक।
इसी से अनियंत्रित था चित्त,
हुई कुछ कहने में भी चूक॥
दोष मेरा ही है आर्य!
सुरक्षा का मुझ पर है भार।
कमी है कहीं व्यवस्था बीच,
इसी से हुआ अचानक वार॥
सोचता था अब तक यह क्षेत्र,
शत्रु-गण हतु अजेय, अगम्य।
किन्तु यह ज्ञात हुआ है आज,
सभी के लिए सुगम, यह रम्य॥
रहा अब नहीं सुरक्षित, शांत
तात! यह अपना पर्ण कुटीर।
मिला इसका हमको संकेत,
चुनौती मिली हमें गंभीर॥
किन्तु इस पर कुछ करें विचार,
नहीं है अभी तनिक अवकाश।
प्रथम आर्या का है उपचार,
चोट से जो है अधिक हताश॥
कष्ट से तड़प रही है हाय,
ऐंठता जाता मंजु शरीर।
एक मेरी गलती से आह,
भोगती भाभी दारुण पीर॥
कर्म-फल-भोग यदपि अनिवार्य,
किन्तु उनका ऐसा क्या कर्म?
दे रहा है जो दारुण क्लेश,
समझ में नहीं आ रहा मर्म॥
ब्रह्म-विद्या-सी परम पवित्र,
लक्ष्मी-सी सब गुण-सम्पन्न।
उमा-सी पति-परायण,
और अन्नपूर्णा-सी सहज प्रसन्न॥
उन्हें जो मिला निदारुण कष्ट,
भाग्य का है यह निश्चय फेर।
इसी से हुई मुझे भी तात!
मूल-फल-संग्रह में कुछ देर॥
देखने लगा प्रकृति-सौन्दर्य,
देह-सुधि-रहित, भूल कर्तव्य।
इसी से हुआ भयंकर काण्ड,
काक ने खाना चाहा हव्य॥
आर्या के पग-क्षत पर शीघ्र,
इंगुदी फल का तैलालेप।
अभी करके करता दुख दूर,
बात में होता कालक्षेप॥"
लक्ष्मण ने तत्क्षण किया,
सहज, सफल उपचार।
पल में हल्का हो गया,
सीता का दुःख-भार॥
तब-तक आता-सा दिखा,
राम-बाण विकराल।
उसके आगे हाँफता-
सा सुरपति का लाल॥
सजग हुए सौमित्र तब,
अपना काढ़ कृपाण।
दुखदाई रिपु के तुरत,
ले लेने को प्राण॥
बोले राघव अनुज से,
कोमल, सरल सुभाय
" दोषी आता द्वार पर,
तुम्हीं करो अब न्याय॥"
कहा लखन ने, " आप ही,
इसको दीजै दण्ड।
कर न सके जिससे कभी,
यह फिर से पाखण्ड॥
न जाने क्यों मैथिली
के भर आये नैन।
बिम्बाधर कम्पित हुए,
किन्तु न फूटे बैन॥