पखेरू लौट आया है / रामनरेश पाठक
कार्तिक की एक गीतिल दोपहरी में
मैंने चिड़ियों के गीत सुने
इनके बोल चुनने, सरगम साधने
पेड़ तले गया
गीत रुक गए
पेड़ सूख गया
सावन की एक प्रेमिल दोपहरी में
मैंने नदियों, झरनों और समुद्रों के गीत सुने
इनके बोल चुनने, सरगम साधने
नदियों, झरनों ,समुद्रों के पास गया
गीत रुक गए
नदियाँ, झरने, समुद्र पाताल चले गए
चैत की एक सर्पिल अर्द्धरात्रि में
मैंने आकाश के गीत सुने
इनके बोल चुनने, सरगम साधने
मैंने आब्रह्मांड यात्राएँ की
गीत रुक गए
आकाश शेष हो गया
फिर मैंने
अपनी मैंडोलिनें तोड़ दीं
ज्ञान, संज्ञान को फेंक दिया
जिनके लिए मुझे गीत और उनके
सरगम की जरूरत थी
सृष्टि को ही अपनी उपलब्धियों से नष्ट कर
मैंने द्वैधी स्वनिहित कर ली
अब मैं और
रमण नहीं करूँगा
पंछी लौट आया है घर