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पगडण्डी / अरुण आदित्य

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दूर-दूर तक फैले हुए घास के हरे-भरे मैदान के बीच
चाँदी के तार जैसी चमकती यह लकीर
अनन्त पदचापों और पदाघातों का अनुभव
समेटे हुए है अपनी स्मृति में

शौर्य के घोड़े पर सवार योद्धा हों
या सफलता के आकाँक्षी कर्मवीर
नई राहों के अन्वेषी जीनियस हों
या शॉर्टकट से मंज़िल पाने के अभिलाषी मीडियॉकर

एक-एक की पदचाप को पहचानती यह लकीर
जानती है रौन्दी हुई घास के एक-एक तिनके की पीर

एक-एक पदचाप से
राहगीर की सफलता-विफलता को
भाँप लेने वाली यह रजत-रेखा
क्या कभी विचलित भी होती है इस सवाल से
कि क्या कुसूर था घास का सिवाय इसके
कि वह किसी की महत्वाकाँक्षा, सहूलियत
या दम्भ के रास्ते में थी

पर घास तो पहले से थी
उसे रौन्दकर रास्ता बनाने वाले
बहुत बाद में आए
फिर इनके आने की सज़ा
घास क्यों पाए ?