पटक-पटककर मार रही महँगाई / जयप्रकाश त्रिपाठी
मैली-मैली हँसी, कसैली चेहरे पर अँगड़ाई।
देखो, कैसे पटक-पटक कर मार रही महँगाई।
अन्दर-अन्दर खौल रहा मन, बाहर-बाहर मेला,
झरझर आँसू, फटी जेब में ससुरा एक न धेला,
बिटिया की रह गई पढ़ाई, कैसे करें सगाई...
देखो, कैसे पटक-पटक कर मार रही महँगाई।
छप्पन सिंह के छप्पन गाड़ी, सात मंज़िला कोठी,
रुपई महतो की हर मुश्किल एवरेस्ट की चोटी,
तीन साल से पड़ी खाट पर काँटा हुई लुगाई...
देखो, कैसे पटक-पटक कर मार रही महंगाई।
पूरब-पच्छिम, उत्तर-दक्खिन चारो ओर बखेड़ा,
आटा, सब्ज़ी, दाल, दूध जैसे मथुरा का पेड़ा,
भाव-ताव करने पर आए दिन की हाथा-पाई...
देखो, कैसे पटक-पटक कर मार रही महँगाई।
रात बिताए रिक्शे पर खर्राटा मारे भोला,
वोट-बहादुर के घर उतरे हरदम उड़न खटोला,
आँख फाड़ के गली-मोहल्ला देखे गजब कसाई...
देखो, कैसे पटक-पटक कर मार रही महँगाई।