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पतङ्गा / प्रतिभा किरण
Kavita Kosh से
पतङ्गे रोशनी की इच्छा लिये
बार-बार आते रहे दीयों तक
और जलाते रहे अपने आप को
क्या उनके पुरखों ने उन्हें
नहीं सुनाई अपनी कहानियाँ?
सुनाई होगी
ज़रूर सुनाई होगी
और ये भी कहा होगा कि
तुम हार मत मानना
तुम दोहराना इतिहास
तुम भले ही दबे पाये जाओ
सालों पुरानी किताबों के भीतर
पर होने न देना अपना परिहास
तुम्हें दो उङ्गलियों के बीच
दबाने वाले आदिम को घूरना
और झोंक देना ख़ुद को
अपने फड़फड़ाते परों से
धिक्कारना उन्हें फिर कहना-
पतङ्गा हूँ तो क्या हुआ
चार पङ्खों में सिला हूँ
दीयों का आमन्त्रण स्वीकारा
तब जाके रोशनी से मिला हूँ