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पता / प्रकाश
Kavita Kosh से
मैंने उसे ख़त लिखा था
और अब पते की ज़रूरत थी
मैंने डायरियाँ खंगालीं
क़िताबों के पुराने कबाड़ मे खोजा
फ़ोन पर कई हितैशियों से पूछा
और हारकर बैठ गया
हारा बैठा जिस हरियल वृक्ष के नीचे
ऊपर से एक पत्ता टपका
एक नन्हीं चिड़िया प्यार से मुझे
देखती थी
मैं रो-रो पड़ता था
मैंने उसे ख़त लिखा था
और अब पते की ज़रूरत थी
हर बार ज़रूरत का ख़्याल आते ही
मैं असहाय बैठ जाता था यहाँ-वहाँ
धरकर सिर पर हाथ
बाल नोंचता भटकता फिरता था
अब जिस पेड़ के नीचे बैठा था
ऊपर डाल पर बैठी
चिड़िया थोड़ी हिली
चमकी उसकी गोल-गोल पुतलियाँ
उसने चोंच खोली
और एक तिनका मेरी गोद में गिरा दिया
मुझे पता मिल चुका था।