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पत्ते / प्रेम कुमार "सागर"
Kavita Kosh से
सूखी हुई टहनी पर खरकते हुए पत्ते
पतझड़ के मौसम में दरकते हुए पत्ते
पराग चूसते भौरों से दो बूंद गिरती है
तभी-कभी दीखते है महकते हुए पत्ते
एक धार शबनम की बुझाएगी तलब कैसे
सावन की आस में है दहकते हुए पत्ते
खार खाकर आँधियों से इस कदर विफरे
चले बस शोर करते, गालियाँ बकते हुए पत्ते
बिजलियाँ उनपर गिराता है नशे में आसमां
लहू फिर चूसते तरू का क्यूँ बहकते हुए पत्ते
बेवक्त कड़ी धूप का असर है ये 'सागर'
चढ़ती जवानी में दिखे पकते हुए पत्ते ||