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पत्थर / प्रेमशंकर शुक्ल
Kavita Kosh से
घिस-घिस कर यह पत्थर
घाट की पहचान बन गया
कुछ तो है इसमें जड़ता के विरुद्ध
धड़क रहा जो मेरे हृदय में
एड़ियों की रंगत और हँसी की धूप
भरी है इसके भीतर
उदास आदमी की कविता
जल के किनारे
इसी के सहारे गाई गई
कुछ तो है इसमें ठस के बरक़्स
टिका है जिससे यह कोमल जल के किनारे
आदिकाल से।