पथभ्रष्ट / हरिवंशराय बच्चन
है कुपथ पर पाँव मेरे
आज दुनिया की नज़र में !
:१:
पार तम के दीख पड़ता
एक दीपक झिलमिलाता,
जा रहा उस ओर हूँ मैं
मत्त-मधुमय गीत गता,
इस कुपथ पर या सुपथ पर पर
मैं अकेला ही नहीं हूँ,
जानता हूँ क्यों जगत् फिर
उँगलियाँ मुझ पर उठाता--
मौन रहकर इस शहर के
साथ संगी बह रहे हैं,
एक मेरी ही उमंगें
हो रही है व्यक्त स्वर में.
है कुपथ पर पाँव मेरे
आज दुनिया की नज़र में !
:२:
क्यों बताऊँ पोत कितने
पार हैं इसने लगाए ?
क्यों बताऊँ वृक्ष कितने
तीर के इसने गिराए ?
उर्वरा कितनी धरा को
कर चुकी यह क्यों बताऊँ ?
क्यों बताऊँ गीत कितने
इस लहर ने हैं लिखाए
कूल पर बैठे हुए कवि से
किसी दुःख की घड़ी में ?
क्या नहीं पर्याप्त इतना
जानना,गति है लहर में ?
है कुपथ पर पाँव मेरे
आज दुनिया की नज़र में !