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पद्मावती-नागमती-बिलाप-खंड / मलिक मोहम्मद जायसी

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मुखपृष्ठ: पद्मावत / मलिक मोहम्मद जायसी

पदमावति बिनु कंत दुहेली । बिनु जल कँवल सूखी जस बेसी ॥
गाढी प्रीति सो मोसौं लाए । दिल्ली कंत निचिंत होइ छाए
सो दिल्ली अस निबहुर देसू । कोइ न बहुरा कहै सँदेसू ॥
जो गवनै सो तहाँ कर होई । जो आवै किछु जान न सोई ॥
अगम पंथ पिय तहाँ सिधावा । जो रे गएउ सो बहुरि न आवा ॥
कुवाँ धार जल जैस बिछौवा । डोल भरे नैनन्ह धनि रोवा ॥
लेजुरि भई नाह बिनु तोहीं । कुवाँ परी, धरि काढसि मोहीं ॥

नैन डोल भरि ढार, हिये न आगि बुझाइ ।
घरी घरी जिउ आवै, घरी घरी जिउ जाइ ॥1॥

नीर गँभीर कहाँ, हो पिया । तुम्ह बिनु फाटै सरवर-हीया ॥
गएहु हेराइ, परेहु केहि हाथा ?। चलत सरोवर लीन्ह न साथा ॥
चरत जो पंखि केलि कै नीरा । नीर घटे कोई-आव न तीरा ॥
कँवल सूख, पखुरी बेहरानी । गलि गलि कै मिलि छार हेरानी ॥
बिरह-रेत कंचन तन लावा । चून चून कै खेह मेरावा ॥
कनक जो कन कन होइ बेहराई । पिय कहँ ?छार समेटै आई ॥
बिरह पवन वह छार सरीरू । छारहि आनि मेरावहु नीरू ॥

अबहुँ जियावहु कै मया, बिंथुरी छार समेट ।
नइ काया, अवतार नव होइ तुम्हारे भेंट ॥2॥

नैन-सीप मोती भरि आँसू । टुटि टुटि परहिं करहिं तन नासू ॥
पदिक पदारथ पदमिनि नारी । पिय बिनु भइ कौडी बर बारी ॥
सँग लेइ गएउ रतन सब जोती । कंचन-कया काँच कै पोती ॥
बूडति हौं दुख-दगध गँभीरा । तुम बिनु, कंत !लाव को तीरा ?॥
हिये बिरह होइ चढा पहारू । चल जोबन सहि सकै न भारू ॥
जल महँ अगिनि सो जान बिछूना । पाहन जरहिं, होहिं सब चूना ॥
कौनै जतन, कंत ! तुम्ह पावौं । आजु आगि हौं जरत बुझावौं ॥

कौन खंड हौं हेरौं, कहाँ बँधे हौं, नाह ।
हेरे कतहुँ न पावौं, बसै तु हिरदय माहँ ॥3॥

नागमतिहि `पिय पिय' रट लागी । निसि दिन तपै मच्छ जिमि आगी ॥
भँवर, भुजंग कहाँ, हो पिया । हम ठेघा तुम कान न किया ॥
भूलि न जाहि कवल के पाहाँ । बाँधत बिलँब न लागै नाहा ॥
कहाँ सो सूर पास हौं जाऊँ । बाँधा भँवर छोरि कै लाऊँ ॥
कहाँ जाउ को कहै सँदेसा ? ।जाउँ सो तहँ जोगिनि के भेसा ॥
फारि पटोरहि पहिरौं कंथा । जौ मोहिं कोउ देखावै पंथा ॥
वह पंथ पलकन्ह जाइ बोहारौं । सीस चरन कै तहाँ सिधारौं ॥

को गुरु अगुवा होइ, सखि ! मोहि लावै पथ माँह ।
तम मन धन बलि बलि करौं जो रे मिलावै नाह ॥4॥

कै कै कारन रोवै बाला । जनु टूटहिं मोतिन्ह कि माला ॥
रोवति भई, न साँस सँभारा । नैन चुवहिं जस ओरति-धारा ॥
जाकर रतन परै पर हाथा । सो अनाथ किमि जीवै, नाथा ! ॥
पाँच रतन ओहि रतनहि लागे । बेगि आउ, पिय रतन सभागे ! ॥
रही न जोति नैन भए खीने । स्रवन न सुनौ, बैन तुम लीने ॥
रसनहिं रस नहिं एकौ भावा । नासिक और बास नहिं आवा ॥
तचि तचि तुम्ह बिनु अँग मोहि लागे । पाँचौ दगधि बिरह अब जागे ॥

बिरह सो जारि भसम कै चहै, चहै उडावा खेह ।
आइ जो धनि पिय मेरवै, करि सो देइ नइ देह ॥5॥

पिय बिनु व्याकुल बिलपै नागा । बिरहा-तपनि साम भए कागा ॥
पवन पानि कहँ सीतल पीऊ ? । जेहि देखे पलुहै तन जीऊ ॥
कहँ सो बास मलयगिरि नाहा । जेहि कल परति देत गल बाहाँ॥
पदमिनि ठगिनि भई कित साथा । जेहिं तें रतन परा पर-हाथा ॥
होइ बसंत आवहु पिय केसरि । देखे फिर फूलै नागेसरि ॥
तुम्ह बिनु, नाह ! रहै हिय तचा । अब नहिं बिरह-गरुड सौ बचा ॥
अब अँधियार परा, मसि लागी । तुम्ह बिनु कौन बुझावै आगी ?॥

नैन ,स्रवन, रस रसना सबै खीन भए, नाह ।
कौन सो दिन जेहि भेंटि कै, आइ करै सुख-छाँह ॥6॥


(1)निबहुर = जहाँ से कोई न लौटे । लेजुरि = रस्सी, डोरी ।

(2) बह = बहता है, उडा उडा फिरता है । छारहि....नीरू = तुम जल होकर धूल के कणों को मिलाकर फीर शरीर दो ।

(3) पोती = गुरिया । चल =चंचल, अस्थिर । बीछुना = बिछोह । जल महँ....बिछूना = वियोग को जल में की आग समझो, जिससे पत्थर के टुकडे पिघल कर चूना हो जाते हैं ( चूने के कडे टुकडों पर पानी पडते ही वे गरम होकर गल जाते हैं )।

(4) आगी = आग में । ठेघा = सहारा या आश्रय लिया । सूर = भौंरे का प्रतिद्वंद्वी सूर्य । बोहारों = झाडू लगाऊँ । सीस चरन कै = सिर को पैर बनाकर अर्थात् सिर के बल चलकर ।

(5) कारण = कारुण्य, करुणा, विलाप ओरति = ओलती । पाँच रतन = पाँचों इंद्रियाँ । ओहि रतनहि लागे = उस रत्नसेन की ओर लगे हैं । तचि तचि =जल जलकर, तपते से । पाँचौ = पाँचौ इंद्रियाँ ।

(6) नागा = नागमती । गरुड = गरूड जो नाग (यहाँ नागमती) का शत्रु है ।