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पन्द्रह / प्रबोधिनी / परमेश्वरी सिंह 'अनपढ़'
Kavita Kosh से
जिंदगी बस आग थी।
मैं आग से खेला किया
काश! इतना जानता तो आदमी मैं भी हुआ होता
कुचल हसरत को नहीं, फिर आय अपने में कभी रोता
कष्ट बस! मैं जिन्दगी
भर प्यार से झेला किया
मैं समझ जिसको लगाया था, है विरवा फूल का
वक्त पर कैसे कहूँ, क्यों निकल आया शूल का
जिंदगी भर शूल उर में,
शूल से खेला किया
से रहा था नयन पलकों पर समझ कर कोकिला का
काग का बच्चा बड़ा हो उड़ गया, यह दिल हिला कर
भूल को सच मानकर
मैं सत्य को ठेला किया
सीप में जलकर बिन्दु मोती है, समझ कर तुम कभी लेना नहीं
याद रख ले मीत! मुझे भूल कर रोना नहीं
जिंदगी भर अश्रु की ही
बाढ़ में हेला किया