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परछाइयों की बाड़ / दिनेश जुगरान
Kavita Kosh से
तुम्हारे बग़ीचे की दीवार बहुत ऊँची है उस पर
चढ़कर मैं उन सुनहरे फूलों को देख नहीं सकता
जिसके चारों ओर हुकूमत के काँटे उगाये हैं तुमने
पहरेदार उस दीवार पर चढ़कर आकाश को
काला करने में व्यस्त हैं
पत्तियों की सरसराहट में भी तुम तलाशते
हो तालियों की गूँज आह्वानों के औजारों से
आहत करना तुम्हारे रोज़मर्रा की
मुद्राओं का हिस्सा बन गया है
तुम्हारे शरीर से बड़ी परछाइयों की बाड़ है
दीवारों के चारों ओर तुम्हारे बग़ीचे
के पेड़ों की आड़ी-तिरछी छाँव डरावनी
लगती है तुम्हारी इमारत के कोने चुभते
हैं मेरे चेहरे पर और ठहाके रोकते
हैं मेरे दम तोड़ते हौसले को
आश्वासन और स्मृति के बीच एक
अजाना भय ही करता है मुझे ऊर्जस्वित