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परछाईं मछली की / अनूप अशेष
Kavita Kosh से
घुटनों-घुटनों
नदी ताल हैं
ऊपर कई सवाल।।
परछाईं हिलती मछली की
मुँह-उजियारे पेड़,
घर के भीतर
बसे हादसे
दरवाज़ों को भेड़।
चलने वालों के
पाँवों में
फेंके अपने जाल।
गोरी-गोरी धूप सुबह की
पानी गई हिलोर,
काँदो-कीच
देह के ऊपर
आँखों-आँखों मोर।
श्वेत-पाँत अपनों की
तीरे आई
बगुला-चाल।