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परम्परावां ! / लक्ष्मीनारायण रंगा

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जूनी अंध्यारी
संकड़ी संकड़ी
कोटड्यां मांय
कैव,
आपां सगळां
सूत्यां हां
मैली बासती सीरखा सूं
मूंढा ढक‘र

जिणमें आपां
पुराणीं सांसां नै
फैरूं पीवां‘र
छोड़ दां
फैरूं लेवा‘र
पाछी छोड दां,

कुण जाणै कद
आपां
ए सीरखां-कोटड्यां सूं
मुगती पासां ?
कद तांई
ओ जैरीलो
चक्कर चालसी ?
कद हुयसी
दिनुगो ?