परिवर्तन में पलना होगा / जयशंकर पाठक 'प्रदग्ध'
पथिक! कहाँ आवश्यक जग में, एक मार्ग से आना-जाना?
हम निसर्ग के अङ्ग मात्र हैं, परिवर्तन में पलना होगा।
आज नहीं तो कल बदलोगे, मार्ग बदल कर चलना होगा।
परिवर्तन ही एक नियम है, आदि-सृष्टि से जड़-चेतन पर।
ज्ञात और अज्ञात तत्व पर, मेरे और तुम्हारे मन पर।
परिवर्तन के रथ पर आगे समय निरंतर बढ़ता रहता।
व्यर्थ मनुज अपने जीवन के, नियम-जाल को गढ़ता रहता।
इस परिवर्तनशील जगत में, हिमगिरि जैसे धवलपुञ्ज को-
एक दिवस यह रङ्ग त्यागकर, अपने-आप पिघलना होगा।
हम निसर्ग के अङ्ग मात्र हैं, परिवर्तन में पलना होगा।
नियम! अवस्था की वाणी है और पात्र का है आभूषण।
नियम! हवा है रिक्त जगह की और काल का है विश्लेषण।
काल, जगह या पात्र, अवस्था, कहाँ एक से रह पाते हैं?
परिवर्तन के स्पर्श मात्र से, एक दिवस ये ढह जाते हैं।
सूर्य जानता है, उसके पथ में अगणित बाधाएँ होंगी।
समय-समय पर उसे घनों में, छुपना और निकलना होगा।
हम निसर्ग के अङ्ग मात्र हैं, परिवर्तन में पलना होगा।
वैसे नियम सदा घातक हैं, जिनका परिवर्तन हो दुष्कर।
द्यूतसभा ऐसे नियमों की उपज, अंत है शरशैया पर।
सही समय पर जो नियमों के, संशोधन से घबराता है।
ज्ञात उसे हो! यह भी कि इतिहास स्वयं को दोहराता है।
एक नियम को ढोते रहना, शव को ढोने जैसा ही है,
जिसकी केवल एक नियति है, उसे चिता पर जलना होगा।
हम निसर्ग के अङ्ग मात्र हैं, परिवर्तन में पलना होगा।