परों का जब कभी / गौतम राजरिशी
परों का जब कभी तूफ़ान से यूँ सामना निकला
कि कितने ही परिंदों का हवा में बचपना निकला
गली के मोड़ तक तो संग ही दौड़े थे हम अक्सर
मिली चौड़ी सड़क जब,अजनबी वो क्यूं बना निकला
न जाने कह दिया क्या धूप से दरिया ने इतरा कर
कि है पानी का हर कतरा उजाले में छना निकला
मसीहा-सा बना फिरता था जो इक हुक्मरां अपना
मुखौटा हट गया,तो कातिलों का सरगना निकला
जरा खिड़की से छन कर चांद जब कमरे तलक पहुँचा
दिवारों पर तिरी यादों का इक जंगल घना निकला
दिखे जो चंद अपने ही खड़े दुश्मन के खेमे में
नसों में दौड़ते-फिरते लहू का खौलना निकला
....और अंत में एक शेर "उन्नी" तेरे लिये
चिता की अग्नि ने बढ़ कर छुआ था आसमां को जब
धुँयें ने दी सलामी,पर तिरंगा अनमना निकला
{त्रैमासिक शेष, जुलाई-सितम्बर 2009 / गर्भनाल 49 अंक}