पल ने जो उपहार दिया था / राकेश खंडेलवाल
मंजूषा में से यादों की पुन: उभर कर आया वह पल
साथ तुम्हारा जिसने मुझको एक दिवस उपहार दिया था
नभ के गलियारे में जब था हुआ
सितारों का सम्मेलन
भाग्य लेख के किसी शब्द ने
किया बाँध कर हाथ निवेदन
तो हो द्रवित सभा ने उस पल
नक्षतों को किया नियंत्रित
और एक वह स्वर्णजड़ित पल
सहसा हुआ वहीं पर शिल्पित
जिसके अन्तर्मन से उपजी हुई एक अनुभूति देख कर
आवेदन, विधि ने सहसा ही बिना शर्त स्वीकार किया था
भू पर आकर उतरे थे तब
नभ की गंगाओं के धारे
कलियों ने अपने सब घूँघट
अगवानी में स्वयं उघारे
चन्दन की गंधों में डूबे
झोंके सारे चली हवा के
कमल. ताल की लहरों पर से
उचक उचक तुमको थे ताके
इन्द्रधनुष पर स्वर्ण किरण के तार बाँध कर मौसम ने भी
साज बना कर नया, तुम्हारी सरगम को झंकार दिया था
वह इक पल जिसमें सहसा ही
हुई सॄष्टि सम्पूर्ण समाहित
सुधियों का संचय पा जिसको
अपने साथ, हुआ आनंदित
जो धड़कन के नव गतिक्रम का
फिर से इक आधार बना है
वही एक पल आकर मेरी
सुधियों का संसार बना है
होकर अब जीवंत खड़ा है मेरी थामे उंगली वह पल
जिसने जाने या अनजाने जीवन पर उपकार किया था