पश्चाताप / चित्रा पंवार
माना कि
यह नहीं होते बेटा और बेटी
परंतु तुम्हारे गर्भ से जन्मी हुई
औलाद तो है न!
जिनके पैदा होने पर
वैसे ही आँचल से बही होगी ममता
जैसे बहती है
जब पैदा होते है बेटा और बेटी
पति पत्नी बन कर
नहीं बसा सकते परिवार
तो क्या प्रेमी भी न होने दोगे इन्हें?
वैसे भी
प्रेम करने की शर्त तो नहीं है
स्त्री या पुरुष होना
जन्मते नहीं संतान
इसलिए वंचित कर दिए गये
माँ बाप के अधिकार से?
वात्सल्य में डूबे नन्द यशोदा से
ये भी बन सकते थे
किसी कन्हैया के माँ बाबा
भले ही
न निभाते बड़े भाई-सा फर्ज
और बहन-सा ख्याल न रखते
मगर अपने सहोदरों का
दोस्त बन हर कदम पर साथ तो निभाते
शिक्षा मिलती तो आत्मनिर्भर होते
स्वाभिमान की रोटी से पेट भरते
मगर अफ़सोस!
बिना किसी गुनाह के
जो कुछ भी इनका था
बेशक इनका था
इनसे छीन लिया गया
आखिर होते कौन है हम?
इनसे छिनने वाले
नहीं! बिल्कुल नहीं
देह की बेहद छोटी अपूर्णता
इनके मस्तिष्क, ह्रदय, कौशल, प्रेम और खुशियों की राह नहीं रोक सकती
कलम पकड़ने वाले हाथ, ताली पीटकर भीख नहीं माँगेंगे
जीवित माँ बाप के होते हुए, अनाथ बनकर नहीं जीयेंगे
घर बार के होते
सीलन भरी तंग गलियों की, दम घोटूँ कोठरियों में नहीं मरेंगे
दूसरों की खुशियों में बधाई नहीं मांगेंगे
अपितु इन्हें अधिकार होगा
अपने जीवन में खुशियों का स्वागत करने का
आओ मिलकर लड़े
उनके लिए
जिन्हें इंसान होते हुए भी
कभी मन बहलाव की वस्तु से अधिक
कुछ समझा ही नहीं गया
उनके छीन लिए गए अधिकार वापस करने होंगे
सौंपना होगा खोया हुआ सम्मान, सूद समेत
उनके हित में बनाए जाएँ सख्त से सख्त कानून
बस यही एक मार्ग शेष है
पश्चाताप का॥