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पसंद का शास्त्र / रमेश ऋतंभर
Kavita Kosh से
हजारों चेहरों के बीच कोई वहीं एक चेहरा क्यों चुनता है
जो दूसरों की नज़र में न तो ज़्यादा खूबसूरत होता है,
न तो ज़्यादा खास।
हजारों रंग के बीच कोई वहीं एक रंग क्यों चुनता है
जो दूसरों की नज़र में न तो ज़्यादा सुर्ख़ होता है
न तो ज़्यादा प्यारा।
हजारों फूल के बीच कोई वहीं एक फूल क्यों चुनता है
जो दूसरों की नज़र में न तो ज़्यादा दिलकश होता है
न तो ज़्यादा खुशबूदार।
हजारों शहर के बीच कोई वहीं एक शहर क्यों चुनता है
जो दूसरों की नज़र में न तो ज़्यादा सुविधाजनक होता है
न तो ज़्यादा संभावनाओं से भरा।
यह तो किसी पर दिल आ जाने की बात है
यहाँ हमारी दुनिया का कोई अर्थशास्त्र नहीं चलता।