पहचान (कविता) / जटाधर दुबे
ई कहाँ आवी गेलियै हम्में,
गाँव से ई कौन शहर में,
वहाँ करोॅ हवा भी
प्रेम सेॅ बात करै छेलै,
हर वक्ते कोय साथ छेलै
आदमी चाहे प्रकृति,
हर आँखोॅ में पहचान
हर पहचान में ईमान
एक्के रंग लागै छेलै
सॉझ-भिहान।
पेड़ पर्वत सब्भे दोस्त छेलै
जेना झुकी-झुकी नमस्कार करै।
है कोनोॅ मरुथल तेॅ नै छै
मतुर हर समय असकल्लोॅ
कैहिने लागै छै
भीड़ जेना भेड़-बकरी नाकी भागै छै,
गाछ-वृक्ष भी सीना तानलेॅ रहै छै,
हम्में जेना बहुत छोटोॅ लागै छियै।
गाँवोॅ में जेनां बनकी राखै छै
बरतन, गहना-गुरिया,
यहाँ की बनकी राखै छै, जानै छोॅ?
तेॅ सुनोॅ,
यहाँ बनकी राखै छै
शान्ति, बुद्धि, स्वाभिमान,
पावै लेॅ अशान्ति, फरेब,
झूठ भरलोॅ अभिमान
तेॅ भागोॅ, भागोॅ
जी.टी. रोड से भागोॅ।
मतुर ज़रा ठहरी केॅ, ज़रा देखी केॅ
गाँव जाय लेॅ सड़क ठीक नै छै,
सड़कोॅ पर बड़ी गढ़ा-गुढ़ी,
हर वक्तेॅ गाड़ी उलटे केॅ डोर,
सुनै छिये पुलोॅ टूटी गेलै।
तेॅ सोची लेॅ की करभोॅ,
भागभेॅ, की रहबेॅ?