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पहला खत / संजीव 'शशि'
Kavita Kosh से
याद बहुत आता पहला खत,
पहले-पहले प्यार का।
आखर-आखर प्रेम समाहित,
शब्द-शब्द मनुहार का।।
पाते ही खत सुध बिसराये,
खुश होकर के झूमना।
कभी लगा लेना छाती से,
बार-बार खत चूमना।
पल भर में लगना ऐसा ज्यों,
पाया सुख संसार का।
पंक्ति-पंक्ति में उसने अपने,
मन की परतें खोलीं थीं।
कोरे कागज पर शब्दों की,
अगनित सजी रँगोली थीं।
अब भी चित्र नयन बसता,
उस अनुपम उपहार का।
बरसों बीत गये हैं फिर भी,
खत महके जैसे चंदन।
कभी रंग फागुन के इसमें,
कभी लगे जैसे सावन।
जिस दिन पढ़ लेता हूँ खत को,
दिन लगता त्योहार का।
पावन भावों को तजकर हम,
भौतिकता की ओर बढ़े।
प्यार भरे मनुहार भरे खत,
मोबाइल की भेंट चढ़े।
प्यार कहाँ अब रहा यहाँ पर,
है मौसम व्यापार का।