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पहलोॅ अध्याय / श्री दुर्गा चरितायण / कणीक

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(यै पहलोॅ अध्याय में देवी महामाया के प्रभाव के वर्णन करलोॅ गेलोॅ छै। जौनें संसारोॅ के स्थिति बनाबै राखै खातिर प्राणी के अन्दर मोह-ममता के संचार करै छै। प्रसंग वस, मार्कण्डेय ऋषि द्वारा विप्रवर क्रौष्टुकि मुनी के जनाय खातिर सावर्णि मनु के जन्म वृतान्त के क्रमोॅ में राजा सुरथ आरो वैश्य समाधि के खिस्सा प्रारम्भ करलोॅ गेलोॅ छै, जहाँ दोन्हूं मेधा ऋषि के आश्रम में पहुँची केॅ देवी प्रभाव केरोॅ बात सुनै छै आरो वही क्रमें मेघा ऋषि राजा आरो वैश्योॅ केॅ भगवान विष्णु द्वारा मधु-कैटभ बध के कथा सुनाबै छै-जे देवी महात्म्य में मधु कैटभ बध कही केॅ छै।)

सावर्णि मनु के जन्मोॅ के बोललै मार्कण्डेय कथा सुनोॅ,
कहलाबै छै अठमोॅ मनु जे, वे सूर्य पुत्र के ब्यथा गुनोॅ।
केनां हुनी रवि पुत्र बनलै भगवती महामाया के कृपां,
कैसें मन्वन्तर स्वामी होलै, हौ टा प्रसंग तों सुनने जा।
बड्डी है पुरानोॅ बात छेकै, स्वारोचिष मन्वन्तर केरोॅ,
सौंसे धरती पर राज चैत्रवंशी राजा सुरथोॅ केरोॅ।
वें प्रजा धर्मपूर्वक पालै आपन्है पुत्रोॅ नांखी हरदम,
कोला विध्वंशी क्षत्रिय नें, तैइयो करी देलकै नाकें दम।
अति प्रवल दण्ड नीति नृप के, शत्रु सें फिन संग्राम भेलै,
कोला विध्वंशी के सेना सें, हार्है के अंजाम होलै।
युद्धोॅ मे पराजित होला सें फिन पृथ्वी पालक नैं रहलै,
निज नगर पहुँचथैं ही शत्रु फिन आबी नृप से जा भिड़लै।
राजा के बल अति क्षणि भेलै, मंत्री केॅ लोभें ग्रसि लेलकै,
वै दुष्ट वली दुरात्मा सभैं, सेना धोॅन सभ टा हड़फि लेलकै।
सुरथोॅ के प्रभुता नष्ट भेलै, मृगया के बहानां बन गेलै,
असकरे अश्व पेॅ हो सवार, जन्नेॅ-तन्नेॅ बिचरे लागलै।
एक आश्रम में कुछु हिंस्र जीव के शान्त भाव में देखलकै,
जहाँ शिष्य सहित मेधा मुनि विप्रोॅ के रहतें नृपें लेखलकै।

मुनी सत्कारोॅ में जुटि गेलै, जेन्हैं नृप आश्रम में अैलै,
कुछु काल आश्रमोॅ में टिकि केॅ नृप यत्र-तत्रा बिचरेॅ लागलै।
सुरथें फिन एक जग्घोॅ पकड़ी, ममता के हिलोरां रत भलै,
सोचै हरदम वै नगरोॅ केॅ जेकरोॅ शासक हौ खुद छेलै।
जै नगरोॅ केॅ पुर्वज सभ ने, चिरकाल धरि पालन कैलकै,
कुछ पता नै छै? कि दुष्ट नौकरें धरम ठो जोगेॅ पारलकै।
मद के बरखा जे करनहार हौ शूरबीर हाथी छेलै,
की जानौ? शत्रु के अधीन की भोगै लेॅ आश्रित भेलै?।
जे कृपा पात्र नर धन भोजन हित अनुशरण में सतत् रहै,
हौ अन्य नृपोॅ के होय अधीन की जानौं, की रङ गति सहै?!
अति कष्ट से भरलोॅ धन के कोष, शत्रुं अनपट्ट खर्चा करतै,
अपब्ययी बनी करि खाली खजाना, फेनू कथी लेॅ वें भरतै?।
राजा सुरथोॅ केॅ यही सवालें हरदम्में आबी घालै,
ऐसनें बातोॅ केॅ सोचि निरन्तर वें मन में ममता पालै।
आश्रम के नगीच्हैं एक दिवश वें एक मनुज केॅ देखलकै,
के छेका तों? की कारण, आबै के? ओकरा सें पूछलकै।
तों शोकग्रस्त अनमनोॅ कैन्है? सुरथोॅ के जिज्ञासा जगलै,
सुनि प्रेम पूर्ण राजा वाणी हौ मनुज भी अति विनीत भेलै।
बोललै राजन, एक वैश्य छिकां, जन्मलोॅ धनी कुल के जन छी,
छै नाम समाधि ठो हमरोॅ विधि दण्ड भोगै हम्में बन छी।
दुष्टा पत्नीं धन लोभोॅ में पुत्रोॅ सें मिली है गति कैलकै,
सभ टा धन हमारा सें टानीं घर सें बाहर ठेली देलकै।
जै बन्धू पर विश्वाश रहै ओकर्है सें अधोगत है हमरोॅ,
बन पहुंचे के छै सबब येहेॅ अनमनोॅ जुकां सूरत हमरोॅ।
याँहूँ पर भी हरदम हमरा ममता रही रही केॅ सालै छै,
केनां-केनां दारा-पुत्रें, स्वजनें सिनीं जिनगी पालै छै?।
कोय कष्ट तेॅ नै ओकरा सभ केॅ? अैलै कोय अमंगल भारी नैं?
कहीं सदाचार रस्ता छोड़ी, बनलै हौ दुराचारी तेॅ नैं?।
राजा बोललै हे वैश्य! तोरा, जे लोभीं बाहर ठेललखौं,
वै पत्नी-पुत्र पर नेह कैन्हें? जौनें तोरा है दुःख देलखौं?।
बोललै समाधि राजन! तोरोॅ सब वाणी उचित ही लागै छौं,
पर करबै की? है मनमां जे, निष्ठुरता देखी भागै छै?।

जौनें कि तिलांजली दै हमरा, निज नेह प्रेमें बंचित कैलकै,
ओकर्है खातिर है नेह-प्रेम उमड़ी केॅ विवश हमरा कैलकै।
हे महामते! गुणहीन वन्धु सिनी पेॅ जे हमरोॅ चित ढरै,
है की छेकै? कैन्हें है रङ? जानथौं भी जानै नैं सपरै।
ओकरा सभ मन में प्रेम नहीं, तैइयो मन निष्ठुर नैं होय छै,
की करौं? नहीं कटियो सूझै? कैन्हैं है रङ मन गति भै छै?।
बोललै मार्कण्डेय है ब्रह्मन! फिन सुरथ समाधि केरोॅ संग,
मेधा मुनि के सेवां गेलै, पूछेॅ लागलै एकरोॅ प्रसंग।
राजा बोललै भगवन! हमरा बतिया जानै के इच्छा छै,
हमरोॅ चित्त हमरे नैं अधीन, घुरि-घुरि जे हमरोॅ परीच्छा लै।
जे राजोॅ सें बंचित हम्में, तैइयो ममतां नैं छोड़ै छै,
मुनि श्रेष्ठ! बताभौ, अज्ञानी रङ मनमां कैन्हें दौड़ै छै?।
हिन्नेॅ है वैश्योॅ अपमानित होय दारा, पुत्र औ, मृत्योॅ सें,
स्वजनोॅ सें तिरस्कृत घर-निकला तैइयोॅ नैं अवगत सत्योॅ सें।
दोन्हूं के हाल एक्के भगवन! दोनोॅ ही दुःखी अति शोकग्रस्त,
दोनों टा ममता मोह ग्रसित, सभ जानौं, फिन भी मूढ़ग्रस्त।
ऋषि बोललै राजन! विषय मार्ग के ज्ञान सब्भै प्राणी में रहै,
कोय दिन देखै कोय रात चरै, अलग्है-अलगीं विषयोंॅ में बहै।
समतुल्य रात-दिन कोइयोॅ लखै खाली मनुजे नैं समझदार,
मनुजे रङ समझ सब्भै राखै, पशु-पक्षी मृग प्राणी अपार।
दोन्हूं में समता, मोह-दया ममता के लच्छन आबै छै,
नै तेॅ चिड़ियाँ रहि खुद भूखलोॅ बच्चा केॅ कैन्हें खिलाबै छै?!
चोचों सें लानीं अन्न कणोॅ केॅ बच्चा केॅ ही तृप्त करै,
खुद क्षुधा पीड़ित रहि मोह वसें अपनां केॅ ही अृतप्त करै।
नरश्रेष्ठ! की तोरा नैं छै पता? कि पुत्र लोभ में आबी नर,
उपकार के बदलां पुत्र चहै, मन में राखी इच्छा के वर?।
समझोॅ के कमी नैं केकर्हौ छै, तैइयो सगरोॅ हौ भटकै छै,
जन्मोॅ-मरणोॅ के चक्कर में ममता केॅ ओट लै अटकै छै।
भगवती महामाया देवी जिनकोॅ प्रभाव में ममता छै,
मोहै के भँवर प्राणी डालै जग स्थिति राखै समता वै।
भगवान विष्णु के योग नीन्द रूपा जे देवी महामाया,
हुनखै से मोहित सकल विश्व, जे बसै सब्भै प्राणीं काया।
सब के चितोॅ कॅे बलपूर्वक खींची केॅ मोह में डालै हुनीं,
सम्पूर्ण चराचर श्रष्टि करै वरदा शक्ति केॅ चालै हुनीं।
हुनीं परा विद्या हुनीं जग वन्धन छाँत मोक्ष दिलाबै अधिकारी,
हुनीं सनातनी देवी छेति सभ टा ईश्वर के अधीश्वरी।
राजा ने पुछलकै हे भगवान! जेका तों महामाया कहल्हौ,
हौ देवी के? केनां भेलै? हुनकोॅ चरित्र सभ टा बोल्हौ।
हे ब्रह्मज्ञानी, हे श्रेष्ठ महर्षि! केनां छै हुनकोॅ प्रभाव?,
कैसनोॅ स्वरूप? सभ बतलाभौ-केना होलै प्रादुर्भाव?।
ऋषि बोललै राजन! देवी तेॅ वास्तव में नित्य स्वरूपा छै,
सौंसे जग व्यापित हुनका में सौंसे जग हुनके रूपा छै।
फिन भी प्राकट्य अनेक तरह जेकरा हम्में अब बतलाभौं,
कि नित्य अजन्मां देव कार्य साधै लेॅ जग फिन-फिन आभौं।
कल्पान्त काल सम्पुर्ण जगत रहै जल निमग्नता सें व्यापित,
भगवान विष्णु निद्रा योगें साँपोॅ के शैय्या पर स्थित।
सुतल्है में हुनकोॅ कानोॅ मैलीं दू टा असुरा उत्पन्न भेलै,
मधु कैटभ नाम के वै दोन्हूं ब्रह्मा मारै ऊपर उठलै।
भगवान विष्णु के नाभिकमल में स्थित ब्रह्मा प्रजापति,
जेन्है देखलक असुरा अैतें हुनी सुतलोॅ पैलकै लक्ष्मीपति।
एकाग्र चित्त लै कमल नयन के जगबै लेली जतन करै,
ब्रह्मा जी चक्षु वसी योग निद्रा केरोॅ स्तवन करै।
हौ विश्वेश्वरी! जगद्यात्री! संहार स्थिति जे गुजरै,
विष्णु के शक्ति वै निद्रा देवी के ब्रह्मां नमन करै।
ब्रह्मा जी बोललै देवि! तोंही छोॅ स्वाहा, स्वधा उ वष्ज्ञट्कार,
स्वर भी तोहीं छोॅ सुधां तोंहि तोर्है में त्रिमात्रा केरोॅ सार।
त्रिमात्रा में अतिरिक्त विन्दु जे अर्ध मात्र कहलावै छै,
ऊँ में उच्चारण गौण रहै, वें भी तोरे गुण गावै छै।
तोंही सन्ध्या छोॅ सावित्री तों जगती के जननी छोॅ परम,
जगती के धार तोर्है सें सिरजन के भी छै बस तोरे करम।
देवी! यै जग के अन्त तोहीं तोर्है सें जग के छै पालन,
श्रृष्टि रूपा बनी जग सिरज्हौ, स्थिति रूपा सें हीं पालन।
हे जगन्मये, हे महास्मृति, संहृति रूपें संहार कर्हौ,
तों महाविद्या, तों महामाया तों मेहामेधा भी नाम धर्हौ।

तों महामोहा, तों महादेवी औ, महासुरी भी नाम तोरोॅ
छो त्रिगुण विभाविनी भी तोहीं प्रकृति के चारै काम तोरोॅ।
तों कालरात्रि, तों महारात्रि आरो मोहरात्रि दारूण तोंहीं,
ईश्वरी संगे श्री भी छोॅ ज्ञानोॅ बोधक बुद्धियोॅ तोंहीं।
लज्जा, पुष्टि, तुष्टि, शान्ति आरो क्षमा के तोंहीं धारक छोॅ
तों घोर रूप लै खड्ग शूल औॅ गदा, चक्र अरि मारक छोॅ।
छौं शंख धनु के संग भुशुन्डी, परिघ आयुध तोरोॅ
सौम्या छोॅ अतिसय सौम्य संग अति सुन्दरतम छौं स्वरूप तोरोॅ।
परमेश्वरी तों अपरा औॅ परा तोंहीं परमा कहलाबै छोॅ,
कोय वस्तु असत् या सत् रूपें अखिलेश्वरी तोंहीं लाबै छोॅ।
छोॅ सकल शक्ति के स्वामिनी तों, तोरोॅ स्तुति केकरोॅ मजाल,
तोर्है बस में छै जग श्रष्टा, संहारक आरो जगतपाल।
हुनका निद्रा में बस करि तों आपन्है अधीन में राखने छोॅ,
तोरा स्तुति में के समर्थ? के वेशी तोरा जानैं छौं?।
हमरा शंकर आरो विष्णुं केॅ देहो तोंहीं तेॅ देने छोॅ,
तोरोॅ स्तुति फिन कौनें करे? जे शक्ति तोहें पैने छोॅ।
देवी! तोहें आपन्है उदारतां हो प्रशन्न असुरा डाँसोॅ,
दोन्हूं दैत्यबा मधुकैटभ केॅ तों मोह जालि में लै फाँसोॅ।
फिन जगदीश्वर विष्णु के जगाभौ, जल्दी जै सें काज सरै,
बुद्धि उत्पन्न कर्हौ हुनका में, जै सें दोनों दैत्य मरै।
ऋषि बोललै राजन! तामसी देवीं ब्रह्मा के स्तवन सुनीं,
विष्णु के जगावैं के लेली माया समेटलक तुरत हुनीं।
फिन नेत्र, नासिका, मुख, बाहू वक्षः हृदयोॅ सें निकली,
अव्यक्त जन्मना अधिष्ठात्रि ब्रह्मा जी आगूं खड़ी भेली।
भगवान जनार्दन मुक्त भेलै वै योग-नीन्द के जालोॅ से,
झट उठी गेलै शेषोॅ सैय्या सें देखलक दू जंजालोॅ के।
दोन्हू असुरां करि नेत्र लाल कोपोॅ से घूरै प्रजापति,
ब्रह्मा केॅ निडलै लेॅ उद्यत हरि देखलक असुरा केरोॅ गति।
श्री हरि जी उठि केॅ पाँच हजार बरस तक दोन्हूं से लड़लै,
पटका-पटकी होथैं रहलै तैइयो नैं कोइयो भी जीतलै।
बल मे उनमत्त दोऊ महादैत्यें, महामाया केरोॅ फेर पड़ी,
मोहोॅ में फँसि वर मांगै लेॅ श्री हरि सें बोललै वही घड़ी।

बोललै दोनों असुरा हरि सें ब्रह्माडोॅ भरी में नैं पैलां,
तोरोॅ सम योद्धा अन्य कोय जेकरा सें इच्छा भरि लड़लां।
तोहरा से युद्ध करी केॅ हमरा दोनों छी अत्यन्त तुष्ट,
लड़बै में मजा खुब्बे अैलैं हमरा से ले कोय बोॅर इष्ट।
हरि बोललै जों प्रशन्न दोऊ तेॅ एक्के वर हम्में चाहौं,
हमरहै हाथें दोन्हूं के मरण, फिन अन्य वरोॅ केॅ की करलौ?।
ऋषि बोललै धोखा में असुरा केॅ सगरो जल प्लावित सुझलै,
सैंसे धरती पर जल ही जल देखी दोनों असुरा बोललै।
धरती पर हौ जग्घोॅ खोज्हैं जहाँ नहीं कटि पानी के धार,
वे सुखला जग्घा पर तोहें हमरा दोन्हूं बीरोॅ के मार।
ऋषि बोललै कही ‘तथास्तु’ हरि जे शंख चक्र औ गदाधारी,
जाँघोॅ पेॅ राखी सिर दोन्हूं के चक्रे काटी देलक मारी।
है रङ ही देवी महामाया, प्रगटली स्तुति ब्रह्मा करने,
हुनके प्रभाव के बात कहाँ जेकरोॅ वर्णन तों जा सुनने॥104॥
(यै अध्याय में उवाच 14 अर्धश्लोक 24 आरो श्लोक 66 छै)