पहाड़ी औरत / महेश चंद्र पुनेठा
इतने ही नहीं दीदी
और भी हैं बहुत सारे संघर्ष
हमारे जीवन में ।
हर दिन
निकलते हैं जब घास-लकड़ी को
शुरू हो जाता है
जीवन-मौत का खेल
लड़ती हैं खड़ी चट्टानों से
ऊँचे-ऊँचे पेड़ो से
तनी हुई रस्सी में
चलने से कम नहीं होता
किसी चट्टान में चढ़
घास काटना
लकड़ी तोड़ना ।
याद आती हैं—
हरूली / खिमुली अपने गाँव की
हार गई थी जो
ऐसी ही खड़ी चट्टानों से
स्मारक बन गई हैं ये चट्टानें आज
उनके नामों की— हरूली काठ /खिमुली काठ
घायलों की तो गिनती ही नहीं
जी रही हैं जो
विकलांग होकर कठिन जीवन
और तरह की दुर्घटनाओं पर तो
मिल जाती है कुछ
सरकारी मदद
पर इसमें तो ऐसा भी कुछ नहीं ।
बच गए चट्टानों से अगर
डर बना रहता है
न जाने कब
किस झाड़ी में
किस कफ्फर में
बाघ-भालू-सूअर
बैठे हों
घात लगाए
कर दें बोटी-बोटी अलग
लाश भी मिलनी कटिन हो जाए
परिजनों को
चौमासी गाड़-गधेरे तो
बस जैसे
हमी को निगलने को
निकलते हैं
जगह-जगह रास्ता रोक
उफनते हैं
कहाँ तक कहूँ दीदी
कोई अंत हो संघर्षों का
तब ना भला !