पहाड़ी के पत्थर / अनिल मिश्र
हवा दिशा बदलती है और पानी अपने रास्ते
इन पत्थरों पर बैठकर
आसमान अपने कपड़े बदलता है
लाखों वर्षों से निश्चल निर्विकार पड़े
एक विशाल शिलाखंड पर
कभी-कभी आती है एक थकी उड़ान
और छोड़ जाती है कोई टूटा हुआ पंख
अपनी कमर में डलिया बांधे स्त्रियां आती हैं
और आंसुओं से तर कर जाती हैं
पहाड़ी की छाती
उनके साथ आते हैं बच्चे
और लगातार कुछ समझाते रहते हैं पत्थरों को
कभी-कभी आता है हारा हुआ प्रेम
और किसी शिला के सीने से लिपट कर
बहुत रोता है
जिस में घुस नहीं पाती
लोहे की नुकीली छेनी
उन्हीं प्रस्तरों को चीरती
घुसती जाती है
कोमल पौधे की मुलायम जड़