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पानदान / जावेद आलम ख़ान

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उस कच्चे घर के साथ
पानदान उन्हे खानदान से विरासत में मिला था
ख़ानों के यहाँ पानों का होना चाय पानी की तरह जरूरी था
उनके सूखे होंठों की सुर्खी के लिए
पानदान ही सिंगारदान था
दाढ़ में दबी पान की गिलौरी
अभावों में पले पिचके गालों को
रईसी की चमक देती थी

खेत जाने से पहले
बासी रोटियाँ चाय में मलकर नाश्ता करने वालों का
पान सामाजिक व्यवहार का आधार था
अतिथि का सत्कार था
पंचों का प्याला था
मोहब्बत का निवाला था

उपले थापते चक्की पीसते चूल्हा फूंकते
पान जैसे हर काम में उनका हाथ बंटाता था
धूप में झुलसी देह जब सांझ को घर आती थी
तब गुड पानी के साथ पान उन्हे ताजगी देता था
देह से लेकर दांत तक हर दर्द की दवा पान था
पान उनकी नींद का समान था

पान रिश्तों को जोड़े रखने वाला कासिद भी था
घरों की मीलाद में पान महफिल की शान था
शादी के लिए बातचीत का सिलसिला पान से शुरू होता था
रमजान के दिनों में पान और पानी सब्र की कसौटी थे
कुंआ खोदकर पानी पीते उस घर में
बिलाशक रोटी उनके जीवन का आधार थी
मगर पान उनकी जीवन रेखा था
हमने बचपन में देखा था