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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / द्वितीय सर्ग / पृष्ठ - ३

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शार्दूल-विक्रीडित

        आती तो न सजीवता अवनि में जो वायु होती नहीं।
        कैसे तो मिलती उसे सरसता जो वारि देता नहीं।
        तो मीठे स्वर का अभाव खलता जो व्योम होता नहीं।
        कैसे लोक विलोकनीय बनता आलोक पाता न जो॥17॥
वंशस्थ
        सदन्न सद्रत्न सदौषधी तथा।
        सुधातु सत्पुष्प सुपादपावली।
        कभी न पाती जगती विभूतियाँ।
        उसे न देती यदि मंजु मेदिनी॥18॥
गीत

संसार बन गया कैसे।
इसकी है अकथ कहानी।
थोड़ा बतला पाते हैं।
वसुधा-तल के विज्ञानी॥1॥

        जो कहीं नहीं कुछ भी था।
        तो कुछ कैसे बन पाया।
        होते अभाव कारण का।
        क्यों कार्य सामने आया॥2॥

परमाणु-पुंज तो जड़ थे।
कैसे उनमें गति आयी।
कैसे अजीव अणुओं में।
जीवन-धारा बह पाई॥3॥

        हो पुंजीभूत विपुल अणु।
        क्यों अंड बन गया ऐसा।
        अबतक भव की ऑंखों ने।
        अवलोक न पाया जैसा॥4॥

वह अपरिमेय ओकों में।
बन प्रगतिमान था फैला।
तारक-समूह मोहरों का।
वह था मंजुलतम थैला॥5॥

        वह घूम रहा था बल से।
        अतएव हुआ उद्भासित।
        थी ज्योति फूटती जिसमें।
        पल-पल नीली, पीली, सित॥6॥

आभा की अगणित लहरें।
नभ में थीं नर्तन करती।
लाखों कोसों में अपनी।
कमनीय कान्ति थीं भरती॥7॥

        अगणित बरसों के दृग ने।
        यह प्रभा-पुंज अवलोका।
        फिर प्रकृति-यवनिका ने गिर।
        इस दिव्य दृश्य को रोका॥8॥

संकेत काल का पाकर।
यह अंड अचानक टूटा।
तारक-चय मिष नभ-पट का।
बन गया दिव्यतम बूटा॥9॥

        हैं किस विचित्र विभुवर के।
        ये कौतुक परम निराले।
        हैं जिसे विलोक न पाते।
        विज्ञान-विलोचनवाले॥10॥19॥

शार्दूल-विक्रीडित

कान्ता कुण्डलिनी अनन्त सरि की धारा समा क्यों बनी।
पाया क्यों धन श्वेतखंड उसने जो हैं सदाभा-भरे।
कैसे तारक-पुंज साथ उसको ब्रह्मांड-माला मिली।
है वैचित्रयमयी विभूति किसकी नीहारिका व्योम की॥20॥

        आभा से तन की विभामय बना ब्रह्मांड-व्यापार को।
        नाना लोक लिये अचिन्त्य गति से लोकाभिरामा बनी।
        तारों के मिष कंठ-मध्य पहने मुक्तावली-मालिका।
        जाती है बन केलि-कामुक कहाँ आकाश-गंगांगना॥21॥