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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / पंचदश सर्ग / पृष्ठ - ५

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(8)
बताता है किसको बहु दिव्य।
कपोलों पर का कलिताभास।
प्रकट करता है किसकी भूति।
सरस मानस का मधुर विकास॥1॥

दृगों में भरकर कोमल कान्ति।
वदन को देकर दिव्य विकास।
किसे कहता है बहु कमनीय।
अधर पर विलसित मंजुल हास॥2॥

जगाकर कितने सुन्दर भाव।
भगाकर कितने मानस-रोग।
हुए उन्मुक्त कौन-सा द्वार।
खिलखिलाने लगते हैं लोग॥3॥

दामिनी-सी बन दमक-निकेत।
सरसता-लसिता सिता-समान।
कढ़ी किससे पढ़ मोहनमन्त्रा।
मधुरिमामयी मंजु मुसकान॥4॥

बना बहु भावों को उत्फुल्ल।
कर भुवन भावुकता की पूत्तिक।
बढ़ाती है किसकी कल कीत्तिक।
मनोहर प्रसन्नता की मुर्ति॥5॥

बन विविध केलि-कला-सम्पन्न।
विमोहक सकल विलास-निवास।
विदित करता है किसकी वृत्तिक।
किसी अन्तस्तल का उल्लास॥6॥

चित्त को बहु चावों के साथ।
बनाता रहता है हिन्दोल।
किस समुद्वेलित निधिकसंभूत।
चपलतम अट्टहास-कल्लोल॥7॥

विकच बन वारिज-वृन्द-समान।
दे भुवन-अलि को मोद-मरन्द।
मुग्ध करता है रच बहु रूप।
लोक-उर अभिनन्दन आनन्द॥8॥

(9)

कलुषित आनन्द

हैं बहुत ही उमंग में आते।
नाचते-कूदते दिखाते हैं।
वैरियों का विनाश अवलोके।
लोग फूले नहीं समाते हैं॥1॥

कम नहीं लोग हैं मिले ऐसे।
मौज जिनको रही बहुत भाती।
और की देखकर हँसी होते।
है हँसी-पर-हँसी जिन्हें आती॥2॥

वे लगे आसमान पर चढ़ने।
जो रहे राह के बने तिनके।
और को पाँव से मसल करके।
पाँव सीधो पड़े कहाँ किनके॥3॥

काल-इतिहास बन्द ताले में।
देख लो ख्याति की लगा ताली।
कर लहू और पान कर लोहू।
क्या न मुँह की रखी गयी लाली॥4॥

काटकर लाख-लाख लोगों को।
जय-फ गये उड़ाये हैं।
छीनकर राज छेद छाती को।
बहु महोत्सव गये मनाए हैं॥5॥

लाल भू-अंक को लहू से कर।
बहु कलेजे गये निकाले हैं।
मोद से मत्त हो बजा बाजे।
सिर कतरकर गये उछाले हैं॥6॥

आ चुके हैं अनेक ऐसे दिन।
जब नृमणि बिधा गया बिलल्ले-से।
मच गयी धूम जब बधाई की।
जब बजीं नौबतें धाड़ल्ले से॥7॥

क्यों बताए महाकुकर्मों ने।
लोक का है अहित किया जितना।
आह! आनन्द से महत्ताम में।
किस तरह भर गया कलुष इतना॥8॥

(10)

दौड़कर नहीं उठाते क्यों।
क्यों मनुजता को ठगते हैं।
देख फिसले को गिर जाते।
लोग क्यों हँसने लगते हैं॥1॥

फाँसकर निज पंजे में क्यों।
शिकंजे में चाहे कसना।
क मतिमंद किसी को क्यों।
किसी का मंद-मंद हँसना॥2॥

व्यंग्य से भरा हुआ क्यों हो।
मौन रह क्यों मा ताना।
बने क्यों गरल तरल धारा।
किसी का मानस मुसकाना॥3॥

अपटुता-पुट मृदुता में दे।
हृदय में क्यों कटुता भर दे।
द्रास नर-सद्भावों का क्यों।
किसी का अट्टहास कर दे॥4॥