भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पार्वती-मंगल / तुलसीदास/ पृष्ठ 16

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

।।श्रीहरि।।

( पार्वती-मंगल पृष्ठ 16)

बहुरि बराती मुदित चले जनवासहि।
 दूलहु दुलहिन गे तब हास-अवासहि।133।

 रोकि द्वार मैना तब कौतुक कीन्हेउ।
 करि लहकौरि गौरि हर बड़ सुख दीन्हेउ।134।

 जुआ खेलावत गारि देहिं गिरि नारिहि।
आपनि ओर निहारि प्रमेाद पुरतारिहि। 135।

सखी सुआसिनि सासु पाउ सुख सब बिधि।
जनवासेहि बर चलेउ सकल मंगल निधि।136।

भइ जेवनारि बहोरि बुलाइ सकल सुर।
बैठाए गिरिराज धरम धरनि धुर। 137।

परूसन लगे सुआर बिबुध जन जेवहिं।
देहिं गारि बर नारि मोद मन भेवहिं।।138।।

करहिं सुमंगल गान सुघर सहनाइन्हं।
 जेइँ चले हरि दुहिन सहित सुर भाइन्ह।139।

भूधर भोरू बिदा कर साज सजायउ।
 चले देव सजि जान निसान बजायउ।140।

सनमाने सुर सकल दीन्ह पहिरावनिं।
 कीन्ह बड़ाई बिनय सनेह सुहावनि।141।

गहि सिव पद कह सासु बिनय मृदु मानबि ।
गौरि सजीवन मूरि मोरि जियँ जानबि।142।

भेंटि बिदा करि बहुरि भेंटि पहुँचावहिं।
 हुँकरि हुँकरि सु लवाइ धेनु जनु धावहिं।143।

उमा मातु मुख निरखि नैन जल मोचहिं।
नारि जनमु जग जाय सखी कहि सोचहिं।।144।

भेंटि उमहिं गिरिराज सहित सुत परिजन ।
बहुत भाँति समुझाइ फिरे बिलखित मन।ं145 ।

संकर गौरि समेत गए कैलासहि।
नाइ नाइ सिर देव चले निज बासहिं।146।

 उमा महेस बिआह उछााह भुवन भरे ।
 सब के सकल मनोरथ बिधि पूरन करे।147।

प्रेम पाट पटडोरि गौरि हर गुन मनि।
मंगल हार रचेउ कबि मति मृगलोचनि।148।

मगनयनि बिधुबदनी रचेउ मनि मंजु मंगलहार सेा।
उर धरहुँ जुबती जन बिलोकि तिलोक सोभा सार सो।।
 कल्यान काज उछााह व्याह सनेह सहित जो गाइहैं ।
तुलसी उमा संकर प्रसाद प्रमोद मन प्रिय पाइहै।16।

(इति पार्वती-मंगल पृष्ठ 16)
 
समाप्त