रात अभी यह तीन पहर हैं ।
बर्फ़ हुई गर्मी धूनी की
‘पौ-फटनी’ है दूर
गुड़ी-मुड़ी काया रल्दू की
ठिठुरन को मजबूर
रोम-रोम में शीतलहर हैं ।
मुखिया खिला-खिला रहता है
क्या-क्या ख़बरें बाँच
तब रल्दू के सपनों में भी
कौंधा करती आँच
अब सपनों में घुला ज़हर है ।
औसारे में
सबद-रमैनी-आल्हा
गुमसुम हैं
बुझे हुए चूल्हों में
पिल्ले दुबकाए दुम हैं
पाला ढाता
ग़जब कहर है ।