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पाव-भर चाँदनी / नन्दकिशोर नवल

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पाव-भर भी जो
शरद् की चाँदनी यह
ढाल पाता
प्राण के भीतर ! --
निकलता प्राण से जो भी
शरद्-सा ही विमल होता --
उतर हर प्राण के भीतर,
कँपा उसके अन्धेरे को,
जुही की चाँदनी उसमें तना देता !