भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पाहुन प्रेत / अमरेन्द्र
Kavita Kosh से
गाँव के जिस बरगद पर बैठा रहता था वह यक्ष
उसी वृक्ष पर बैठ गया है, आ कर प्रेत कहीं से
उलट भाग्य की विकट कथा भी होती शुरु यहीं से
आया तो फिर गया ही नहीं, घोर अमावस पक्ष।
सूखी नदियों पर चाँदी का किसका है यह सेतु
जंगल की छाती पर नीलम पथ चमकीले शोभित
खेतों के हैं हवनकुण्ड से उठते ध्रुम ये लोहित
मठ पर किनके गड़े हुए ये किसिम-किसिम के केतु ।
प्रेत मग्न है देख-देख नदियों पर शहर बसा है
पोखर में नगरों के कचरे का पहाड़ उड़ता है
यक्षथान के साथ-साथ नव अन्न का जी कुढ़ता है
पूनम से पहले राहू ने शशि को पकड़ ग्रसा है।
घाघ-भड्डरी को वनवास मिला है, माटी रोए
खेतों से कोठी तक की महमह परिपाटी रोए ।