पिता तुम आकाश थे / गोविन्द कुमार 'गुंजन'
पिता तुम आकाश थे
तुम्हारी गोद में उड़ने का अवकाश था मुझे
तुम्हारे सीने से उगता था सूरज
और तुम्हारी हॅसी में स्निग्धता थी चॉदनी की
ऋतुएं बदलती थी
मुसीबतें आती थी
बरसात के दिनों में टपकती थी छत
गीली लकड़ी चूल्हे में जलती थी कम
धुआ ज्यादा देती थी
तुम हर चीज़ को ठीक कर देते थे
सारी तकलीफों को अपने सीने में समेट कर
तुम तने रहते थे छाया बनकर
तुम्हारा अविचलित रहना
फूलांे का मौसम ले आता था
मुसीबतें टल जाती थी
तुम्हारी छाया तले
हम अँकुराए, अखुआए
तुमने निराई हमारी खरपतवारें
ताकि हम पौधों की तरह समूचे लहलहा सके
हमारे वास्ते
तुम इन्द्र बनकर लाए मेघों का अमृत
हमारी जड़ों को अपनी धूप से सहलाकर
अपने मचानों पर तुम जागते रहे रात रात भर
तुम्हारी बदौलत
हम पेड़ बने छायादार
हमारी डालों पर फूल खिले फल आये
बचपन में हम सोचते थे
काश कोई सीढ़ी होती
जिस पर चढ़ते चढ़ते हम छू आते आसमान
अब बहुत उड़कर जाना
कि हम कितना भी उड़े
तुम्हारी ऊॅचाई तक नहीं पहुचा जा सकता कभी
कहीं नहीं है कोई ऐसी सीढ़ी
जो इतना ऊॅचा हमें ले जा सके
कि हम तुम्हें छू सके पिता
तुम आकाश थे
तुम आकाश हो हमारे जीवन पर छाये हुए
तुम्हारी सृष्टि में
सब कुछ क्षमा है हमें
तुम्हारी तितिक्षा में
सर्वथा रक्षित हैं हम
उड़ते रहते हैं खुशी खुशी
निरापद निर्भय कहीं भी
कभी भी।