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पितृसत्ता के खिलाफ / संतोष श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
मैं लहरों के थपेड़ों में
टूटती बनती
बनती टूटती
कितनी ही बार
किनारों से टकरा कर
बिखर जाती हूँ
दूर-दूर तक
फैली रेत पर
रेत पर
काले धागों से बना
जाल है
नहीं वह काला नहीं है
दिख रहा है रात में
और कर रहा है प्रतीक्षा
अंधे मछुआरे की
वह जाल
जिसमें कितनी ही
मछलियों की तड़प है
टूटती सांस का
जाल के हर धागे पर
बेहिसाब शुमार है
पर कोई देख नहीं पाता
कौन देख पाता है भला
किसी का टूटना
जाल तो बस
गिरफ्त जानता है
नहीं जानता
गिरफ्त से
पहले का संघर्ष
इस संघर्ष से गुजरते
कितनी ही बार मैं
पस्त हुई हूँ
पर हर बार
मुझे उठा कर
खड़ा कर देता है
मेरे अंदर का युद्ध