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पीड़ा-गीत / विमल राजस्थानी

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मेरे सारे इरादे सपन हो गये
कुछ हवा हो गये, कुछ हवन हो गये
मेरी कुर्बानियों का कुफल देखकर
मेरे होशो-हवाश हिरन हो गये

जो भी सोचा हुआ वह कहाँ सृष्टि में
मन न भींगा कभी स्नेह की वृष्टि में
दृष्टि में जो भी हैं व न मन छू सके
जो थे भाये, थे छाये, दफन हो गये

‘सोच’ का यह घरौंदा ढहा रेत का
कल्पना चीथड़ो में लिपट रह गयी
जो उम्मीदें सँजोयी थीं वे वेदना
के महासिन्धु के प्यास में बह गयी

मेरे सारे मंसूबों पै पानी फिरा
डूबते सूर्य की वे किरन हो गये
साथ आँसू रहे, उखड़ी साँसें रहीं
दर्द-पीड़ा ही भाई-बहन हो गये

हो रही अब तो जाने की तैयारियाँ
ले उड़ेंगी हवा रेत की धारियाँ
मिल चुका है निमन्त्रण चिता-दाह का
साथ देंगी फकत चन्द चिनगारियाँ

लील जायेगा नभ जो उठेगा धुँआ
राख ‘पिंजरा’ बनेगा, उड़ेगा ‘सुआ’
शब्द के जो महल रात-दिन थे बने
आसमाँ से भी ऊँचे कँगूरे चिने
वे ही अर्थी औ’ वे ही कफन हो गये