पीढ़ियों की कब्रगाह में / शशांक मिश्रा 'सफ़ीर'
पीढ़ियों की कब्रगाह पर
विकास का दम्भ भरती सभ्यता।
जहाँ चीखती हैं संस्कृतियाँ
तार तार होकर।
प्रलाप करती हैं कलियाँ
नोंचे जाने के भय से।
लोग जिनके चेहरे की झुर्रियों में दफ्न हैं,
कई एकतरफा समझौते।
यहाँ सब कुछ मृतप्राय है।
क्योंकि
शहर ने जल्दबाजी में छोड़ दिया अपना प्राण।
जिसे अभी तक सहेज कर रखा है गांव ने।
गाँव,
जहाँ बसन्त हर आंगन में रोजाना उतरता है।
चांदनी मणियोँ में बदल जाती है तालाब में घुल कर।
अन्तस् तक स्पर्श करती है पुरवाई।
गाँव जहाँ सूरज भी कांपता है काका की लाठी से।
जहाँ दिशाएँ जुट जाती हैं पौषम पा खेलने,
लड़कियों के साथ।
जहाँ पेट की भूंख के पैमाने तय नहीं होते।
शहर के उत्तराधिकारी लोगों।
जब प्रश्नचिन्ह लग जाये तुम्हारे उत्कर्ष पर,
जब पतित होने लगे तुम्हारी सभ्यता।
हताश मत होना।
ढूंढ लेना गाँव का पीपल,
जिसमे टंगे घण्ट में एक आत्मा
तुम्हारा इंतजार करेगी।