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पीर है ठहरी / रंजना गुप्ता

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पीर है ठहरी ह्रदय में जाँचती
द्वन्द या दुविधा दृगों से बाँचती

आस के उत्कल बसन्ती थे कभी
रात ठहरी है भुजाओं में अभी
श्वास में खँजर
हवाएँ काँपतीं

प्रीत के पन्ने सभी निकले फटे
घाव थे कल तक दबे वे सब खुले
पट्टियाँ फिर भी
व्यथाएँ बान्धतीं

रोकती मुझको मेरी ही मर्ज़ियाँ
दौड़ती है पसलियों में बर्छियाँ
दस्तकें फिर भी
कहा ना मानतीं

बँसवट तो है सुगन्धों से लदे
हम कहीं गहरे कुएँ में थे धँसे
दर्द कितना है
ये कैसे नापतीं