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पी चुके धुआँ कोहरा / पद्माकर शर्मा 'मैथिल'

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पी चुके धुआँ कोहरा और फिर भी प्यासे हैं
विवशता कि छेनी से हम गए तराशे हैं

दिन झुलस-झुलस जाता, धुएँ की लकीरों से
रात में सितारे सिर धुन रहे फ़क़ीरों से
दूधिया उमर में ये दिन हुए बताशे हैं
विवशता कि छेनी से हम गए तराशे हैं

सुलगते अलावों की आँच कम नहीं होती
घुट घुट रह जाता मन आँख नम नहीं होती
यातनाएँ पर्वत-सी और हम ज़रा से हैं
विवशता कि छेनी से हम गए तराशे हैं

घर में है सफ़ेदी तो मकड़ियों के जालों की
दूर तक क़तारें हैं झुग्गियों की चालों की
साँझ क्या सहेजेगी, भोर के उदासे हैं
विवशता कि छेनी से हम गए तराशे हैं