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पुतला / राजीव रंजन
Kavita Kosh से
सज-धज कर पुतला अब
बाहर जाने को तैयार था।
बाहर के वातावरण में
हवा-पानी का मजा लेने।
शायद उसे अपनी सुन्दरता
के साथ दृढ़ता का गुमान था।
पर यह क्या हवा के मंद
झोकें में और पानी की चंद
फुहारों में ही उसका
चमकीला रंग धुलने लगा
और रंगीन कागज जो
सटे थे उस पर चमड़े की
परत बन, वे उखड़ने लगे।
देखते ही देखते अन्दर
की हड्डियाँ अब कागज की
लुगदियों सी गलने लगी।
जिसे दधीची की हड्डियों
सा बज्र होने का गुमान था,
उस पर बरसात की पहली
फुहार ने ही पानी फेर दिया।