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पुनर्नवा / मुक्ता
Kavita Kosh से
औरत की स्मृतियों से मिट रही है चिड़ियों की चहचहाहट
चमेली, जुही, चंपा, हरसिंगार की गंध
भोर उगते ही बजने वाला रहट का स्वर
टटके महुए का स्वाद, ‘उगहु सूरज मन ’ की आस
औरत को पुलकित नहीं करता
गिलाफ पर फूल काढ़ते हुए कोई आत्मीय चेहरा
औरत को भयभीत करते हैं चेहरे
चेहरों पर उगे नख दंत
पगडंडियों से राजपथ तक फैले नाखून
खरोंचों नें मिटा दी हैं स्मृतियाँ
औरत तय करती है पानी, मिट्टी, धूप से अपना रिश्ता
औरत की पुनर्नवा देह सृजित करती है
सूर्य-मन, चिड़ियों का गान, कुसुम गंध।