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पूछा था “हे प्रियतम! कैसे तुम अगणित स्वर गढ़ लेते हो / प्रेम नारायण 'पंकिल'

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पूछा था “हे प्रियतम! कैसे तुम अगणित स्वर गढ़ लेते हो ?
मेरे मानस के मूक काव्य की पंक्ति-पंक्ति पढ़ लेते हो” ?
बोले “क्या प्रिये! विहंगम के हैं आषाढ़ी दिन रीत गये?
नित नव-सर्जक को सभी पता, गाओ प्रेयसि! कुछ गीत नये।
यह प्रश्न पूछने की मृगेक्षिणी! प्राचीना परिपाटी है।
संगिनी! स्नेह-सरिता की मैंने बूँद-बूँद सब चाटी है”।
आ मिलो नवल सर्जक! विकला बावरिया बरसाने वाली ।
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन-वन के वनमाली ॥100॥