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पृथ्वी नीचे दिखती है / दिनेश जुगरान

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तुमने
कभी तहख़ाना देखा है?
उसमें भी
होते हैं कमरे
जो रहते हैं
अक्सर बंद
वहाँ महज चंद लोग
केवल
इशारों में बातें करते हैं

इशारों से
की गई बातों का
भयानक शोर
जब थम जाता है
तब से
धीरे-धीरे
सुरंगों से निकल कर
सपाट पहाड़ी मैदान से
ऐलान कर देते हैं
तुम देखते हो
खड़े हुए हाथ

वे विरोध
या सहमति में
हिल रहे हैं
इसका फैसला
तहख़ानों के बंद कमरों में करते हैं

वे जब तहख़ानों में
नहीं होते
तब वे सड़कों पर
मील के पत्थरों को
अपने बगल में दबा कर चलते हैं
और
अपनी मर्जी से
किसी भी स्थान पर
उसे लगा कर
अपनी दूरी तय
कर लेते हैं

इन विशेष तहख़ानों से
पृथ्वी नीचे दिखती है
और एक अपरिचित भय
गेंद की तरह
वे एक-दूसरे की ओर उछालते रहते हैं
अचानक
उनमें से एक
अपनी कमज़ोर पड़ती
रीढ़ की हड्डी के बीच दबाकर
अपनी आँखें भींच लेता है
और तहख़ाने के सार्वजनिक अंधकार को
उजाले की परिभाषा मानता है