प्रकाश अँधेरी रातों में / हरिवंश प्रभात
प्रकाश अँधेरी रातों में जब, आने जैसा लगता है,
आँचल चाँद के चेहरे से, सरकाने जैसा लगता है।
मर्यादा होती है माँगनेवाले की, देनेवालों की,
आशीर्वाद का भाव सदा अपनाने जैसा लगता है।
जाने कब बारिश हो जाए, या फिर चाँद निकल आए,
बादल का, आँख मिचौनी भी, उकसाने जैसा लगता है।
हालत विषम हो जनमानस की और हताशा भरी हुई,
ऐसे में हो साकार सृजन, अफ़साने जैसा लगता है।
अलंकार से कविता में, ख़ुशबू सौन्दर्य की होती है,
कभी-कभी तो ऊँगली दाँतों तले दबाने जैसा लगता है।
नदी किनारे बसने वाले, धुन लहरों की सुनते हैं,
फिर ना जाने क्यों दिल में घबराने जैसा लगता है।
साँसों में बस्ती है जिस मिटटी की सोंधी ख़ुशबू हैं,
सरसों के फूलों में प्यार छुपाने जैसा लगता है।
है प्रभात ईश्वर से यारी, आसमान की धरती से,
फिर तूफ़ान का आना प्रलय के आने जैसा लगता है।