प्रकृत पाठ / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
प्यारे बालक! नयन खोल सब ओर विलोको;
दिव्य भाव से भरे भव-विभव को अवलोको,
बहु सज्जित तरु-पुंज, फल-भरी उनकी डाली,
परम मनोहर छटा, नयन-रंजन हरियाली।
मंजु रंग में रँगे सुरभि से मुग्ध बनाते;
विकसे नाना फूल मधुर हँसते, सरसाते,
चित्र-विचित्र विहंग कलित कंठता दिखाते;
करते विविध कलोल, गान स्वर्गीय सुनाते।
क्या नयनों में नहीं ज्ञान की ज्योति जगाते?
क्या कानों में नहीं सुधा-बूँदें टपकाते?
क्या न हृदय की कलिका है उनसे खिल पाती?
रस की धारा क्या न उरों में है बह जाती?
मंद-मंद चल सरस पवन जब है तन छूती,
जब बनती है सुरभि वितर सुरपुर की दूती,
तरु-दल उसके कलित अंक में हैं जब हिलते,
उसके चुंबन किए जब कुसुम-कुल हैं खिलते।
तब क्या नहीं अनंत दयामय की यह धाती
है जग-जन को पूत प्रेम का पाठ पढ़ाती?
तब क्या बहती हुई लोक में भव-हित-धारा
नहीं सिखाती सरस हृदय का हित व्रत सारा?
जब आती है रात ओढ़कर चादर काली,
जग-विराम की लिये हाथ में सुंदर ताली,
जब घूँघट को खोल विधु वदन है दिखलाती,
जब दृग से है ओस-बूँद-मिष वारि बहाती।
तब क्या जगत-प्रपंच नहीं है सम्मुख आता?
तब क्या दुख-सुख-चित्र नहीं चित्रित हो जाता?
तब तम पर क्या नहीं ज्योति है गरिमा पाती?
क्या करुणा है पापमयी में नहीं दिखाती?
घनमाला जब घूम-घूम है नभ में छाती,
सूखे को कर सरस वारि जब है बरसाती,
तरु-तृण तक को सींच ताप महि का है खोती,
जब देती है सिंधु-सीप को सुंदर मोती।
तब क्या सबको द्रवणशीलता नहीं सिखाती?
क्या न भूत-हित-साधन का है सूत्र बताती?
क्या न परम गंभीर नाद से है यह कहती-
बनो तरल, उर हरो भव-पिपासाएँ महती?
ऐसे प्यार प्रकृत पाठ हैं सब दिन पाते
वे बालक जो प्रकृति-देवि-पद हैं अपनाते,
रज-कण तक में भरी हुई है शिक्षा प्यारी;
हैं उसके सब खुले नयनवाले अधिकारी।