प्रतिदान / महेन्द्र भटनागर
तुम्हारे मूक निश्छल प्यार का
प्रतिदान कैसे दूँ !
अनोखे इस सरल मधु-प्यार का
प्रतिदान कैसे दूँ !
विश्वास था इतना —
न दुर्बल हो सकूंगा मैं,
विश्वास था इतना
न मन-बल खो थकूंगा मैं !
पर, रुका हूँ,
सोचता हूँ
एक मंज़िल पर —
कि कैसे बन सकूँ मैं अंग, साथी
इस तुम्हारे मोह के संसार का !
प्रतिदान कैसे दूँ
तुम्हारे मूक निश्छल प्यार का !
स्नेह पाया था ;
कहानी बन गयी !
अवश निशानी बन गयी !
अफ़सोस है गहरा
कि उसका गीत ही अब गा रहा हूँ,
और अपने को
विवश-निरुपाय कितना पा रहा हूँ !
और ही पथ आज मेरे सामने
जिस पर निरंतर जा रहा हूँ !
सोचता हूँ —
साथ कैसे दूँ तुम्हारे राग में
जो बज रहा है ज़िन्दगी के तार का !
प्रतिदान कैसे दूँ
तुम्हारे मूक निश्छल प्यार का !
उन्माद भावुकता सभी तो
आज मुझसे दूर हैं,
स्वर्णिम-सुबह की रश्मियाँ सब
श्याम-घन के आवरण में
बद्ध हो मजबूर हैं !
औ’ युग-विरोधी आँधियाँ हैं;
पर, तुम्हारी याद कर
इन आँधियों के बीच भी
पुरज़ोर रह-रह सोचता हूँ —
किस तरह दूंगा तुम्हें
वह अंश जीवन का
मिला है जो तुम्हें
सच्चे हृदय के स्नेह के अधिकार का !
प्रतिदान कैसे दूँ
तुम्हारे मूक निश्छल प्यार का !
1949