प्रतिद्वन्दी नहीं तुम मेरे / नीरजा हेमेन्द्र
मैंने कभी नहीं चाहा कि
तुम मेरे प्रतिद्वन्दी बनों
या करूँ मैं तुम्हारा विरोध
तुम्हारे बिना अपने अस्तित्व की कल्पना
मैंने कभी नहीं की
आखिर तुम्हीं ने तो भरी थी
बाल्यावस्था में
मेरे पंखों में उड़ान
दी थी इच्छाओं को हवा
मैं उड़ती रही सपनों के साथ
तुमने क्यों नहीं अवगत् कराया कि,
पुत्री! सपनों के साथ उड़ना
तुम्हें कर सकता है आहत
किशोरवय छोड कर
जब मैंने पाया तुम्हें
परिवर्तित हो चुका था स्वरूप तुम्हारा
मेरी कल्पनाओं में बसा था
पिता-सा स्वरूप तुम्हारा
तुम्हारी दुनिया में मैं भरूँगी
नभ से लाकर इन्द्रधनुश के सात रंग
मेरे पैरों को बेड़ियों में मत जकड़ों
मैं तुम्हारे साथ चलूँगी
धूप में भी... छाँव में भी...
मेरे सह-पथगामी
पथ के अन्तिम पड़ाव पर
मुझे तुम्हारा थोड़ा-सा सम्बल चाहिए
ओ पुत्र मेरे!
मेरी वो मजबूत बाँहें अब थरथराने लगी हैं
जिन्होंने तुम्हे गोद में उठाया था
काँपने लगी हैं मेरी वो बूढ़ी उंगलियाँ
जो तुम्हे खिलाती थीं रोटियाँ
जब तुम हठ कर बैठते थे बचपन में
भोजन न करने की
मुझे वृद्धाश्रम में नहीं
तुम्हारे घर में... तुम्हारे हृदय में
थोडा़-सा स्थान चाहिए
अन्तिम पड़ाव समीप है मेरे पुत्र!
मैं न होती तो क्या तुम्हारा अस्तित्व होता?
तुम्ही बताओं मेरे पिता... मेरे पति... मेरे पुत्र...
तुम न बनों मेरे प्रतिद्वन्दी... मेरे विरोधी...
मेरी सम्पूर्णता को तुम
चुनौती नहीं दे सकते
मैं स्त्री हूँ
मैं अविजित थी... हूँ... और रहूँगी...
तुम मेरे प्रतिद्वन्दी नहीं
नहीं करना मुझे तुम्हारा विरोध।