प्रथम अंक / भाग 3 / रामधारी सिंह "दिनकर"
रम्भा
बाहॉ मॅ ले उड़ा ? अरी आगे की कथा सुनाओ.
सह्जन्या
यही कि हम रो उठी, “दौड़ कर कोई हमॅ बचाओ”
रम्भा
तब क्या हुआ?
सह्जन्या
पुकार हमारी सुनी एक राजा ने,
दौड़ पड़े वे सदय उर्वशी को अविलम्ब बचाने
और उन्ही नरवीर नृपति के पौरुष से, भुजबल से
मुक्त हुई उर्वशी हमारी उस दिन काल-कवल से.
रम्भा
ये राजा तो बड़े वीर है.
सह्जन्या
और परम सुन्दर भी.
ऐसा मनोमुग्धकारी तो होता नही अमर भी
इसीलिये तो सखी उर्वशी ,उषा नन्दनवन की
सुरपुर की कौमुदी, कलित कामना इन्द्र के मन की
सिद्ध विरागी की समाधि मॅ राग जगाने वाली
देवॉ के शोणित मॅ मधुमय आग लगाने वाली
रति की मूर्ति, रमा की प्रतिमा, तृषा विश्वमय नर की
विधु की प्राणेश्वरी, आरती-शिखा काम के कर की
जिसके चरणॉ पर चढने को विकल व्यग्र जन-जन है
जिस सुषमा के मदिर ध्यान मॅ मगन-मुग्ध त्रिभुवन है
पुरुष रत्न को देख न वह रह सकी आप अपने मॅ
डूब गई सुर-पुर की शोभा मिट्टी के सपने मॅ
प्रस्तुत है देवता जिसे सब कुछ देकर पाने को
स्वर्ग-कुसुम वह स्वयं विकल है वसुधा पर जाने को.
रम्भा
सो क्या, अब उर्वशी उतर कर भू पर सदा रहेगी?
निरी मानवी बनकर मिट्ती की सब व्यथा सहेगी?
सहजन्या
सो जो हो. पर, प्राणॉ मॅ उसके जो प्रीत जगी है
अंतर की प्रत्येक शिरा मॅ ज्वाला जो सुलगी है
छोडेगी वह नही उर्वशी को अब देव निलय मॅ
ले जायेगी खींच उसे उस नृप के बाहु-वलय मॅ
रम्भा
ऐसा कठिन प्रेम होता है?
सहजन्या
इसमॅ क्या विस्मय है?
कहते है, धरती पर सब रोगॉ से कठिन प्रणय है
लगता है यह जिसे, उसे फिर नीन्द नही आती है
दिवस रुदन मॅ, रात आह भरने मॅ कट जाती है.
मन खोया-खोया, आंखॅ कुछ भरी-भरी रहती है
भींगी पुतली मॅ कोई तस्वीर खडी रह्ती है
सखी उर्वशी भी कुछ दिन से है खोई-खोई सी
तन से जगी, स्वप्न के कुंजॉ मॅ मन से सोई-सी
खड़ी-खड़ी अनमनी तोड़्ती हुई कुसुम-पंखुड़ियाँ
किसी ध्यान मॅ पड़ी गँवा देती घड़ियॉ पर घड़ियाँ
दृग से झरते हुए अश्रु का ज्ञान नही होता है
आया-गया कौन, इसका कुछ ध्यान नही होता है
मुख सरोज मुस्कान बिना आभा-विहीन लगता है
भुवन-मोहिनी श्री का चन्द्रानन मलीन लगता है.
सुनकर जिसकी झमक स्वर्ग की तन्द्रा फट जाती थी,
योगी की साधना, सिद्ध की नीन्द उचट जाती थी.
वे नूपुर भी मौन पड़े है,निरानन्द सुरपुर है,
देव सभा मॅ लहर लास्य की अब वह नही मधुर है.
क्या होगा उर्वशी छोड जब हमॅ चली जायेगी?
रम्भा
स्वर्ग बनेगा मही, मही तब सुरपुर हो जायेगी .
सहजन्ये! हम परियॉ का इतना भी रोना क्या?
किसी एक नर के निमित्त इतना धीरज खोना क्या?
हम भी है मानवी कि ज्यॉ ही प्रेम उगे रुक जाये?
मिला जहाँ भी दान हृदय का, वही मग्न झुक जायॅ
प्रेम मानवी की निधि है, अपनी तो वह क्रीड़ा है;
प्रेम हमारा स्वाद, मानवी की आकुल पीड़ा है
जनमी हम किसलिये? मोद सबके मन मॅ भरने को
किसी एक को नही मुग्ध जीवन अर्पित करने को.
सृष्टि हमारी नही संकुचित किसी एक आनन मॅ,
किसी एक के लिये सुरभि हम नही संजोती तन मॅ.
कल-कल कर बह रहा मुक्त जो, कुलहीन वह जल है
किसी गेह का नही दीप जो ,हम वह द्युति कोमल है.
रचना की वेदना जगा जग मॅ उमंग भरती है,
कभी देवता ,कभी मनुज का आलिंगन करती है.
पर यह परिरम्भण प्रकाश का, मन का रश्मि रमण है,
गन्धॉ के जग मॅ दो प्राणॉ का निर्मुक्त रमण है.
सच है कभी-कभी तन से भी मिलती रागमयी हम
कनक-रंग मॅ नर को रंग देती अनुरागमयी हम;
देती मुक्त उड़ेल अधर-मधु ताप-तप्त अधरॉ मॅ ,
सुख से देती छोड़ कनक-कलशॉ को उष्ण करॉ मॅ;
पर यह तो रसमय विनोद है, भावॉ का खिलना है,
तन की उद्वेलित तरंग पर प्राणॉ का मिलना है.
रचना की वेदना जगाती, पर न स्वयं रचती हम
बन्ध कर कभी विविध पीड़ाऑ मॅ न कभी पचती हम.
हम सागर आत्मजा सिन्धु-सी ही असीम उच्छल है
इच्छाऑ की अमित तरंगो से झंकृत, चंचल है.
हम तो है अप्सरा ,पवन मॅ मुक्त विहरने वाली
गीत-नाद ,सौरभ-सुवास से सबको भरने वाली.
अपना है आवास, न जानॅ, कित्नॉ की चहॉ मॅ,
कैसे हम बन्ध रहॅ किसी भी नर की दो बाहॉ मॅ?
और उर्वशी जहाँ वास करने पर आन तुली है,
उस धरती की व्यथा अभी तक उस पर नही खुली है.